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प्रजा की प्रार्थना
भगवान् ऋषभदेव के समय में भोग- भूमि की समाप्ति एवं कर्म-भूमि की नवीन व्यवस्था प्रचलित हुई थी । एक दिन प्रजाजन भगवान् के शरण में ग्राकर इस प्रकार निवेदन करने लगे "भगवान् ! अब कल्पवृक्ष तो नृष्ट हो गए इसलिए हम किस प्रकार क्षुधादि की वेदना को दूर करें ?" उन्होंने कहा था :--
वांछन्त्यो जीविकां देव त्वां वयं शरणं श्रिताः । तन्नस्त्रायस्व लोकेश तदुपायप्रदर्शनात् ।। १३६ ॥
तीर्थंकर
हे देव ! हम लोग प्राजीविका प्राप्ति की इच्छा से आपके शरण में आए हैं; अतः हे लोकेश ! जीविका का उपाय बताकर हम लोगों की रक्षा कीजिए ।
प्रजापति ने क्या किया ?
उस समय भगवान् के हृदय में दया का भाव उत्पन्न हुआ । वे अपने मन में इस प्रकार विचार करने लगे :
पूर्वापर - विदेहेषु या स्थितिः समवस्थिता ।
साद्य प्रवर्तनीयात्र ततो जीवन्त्यमूः प्रजाः ॥ १४३ ॥
षट्कर्माणि यथा तत्र यथा वर्णाश्रमस्थितिः । यथा ग्राम-गृहादीनां संस्त्यायश्च पृथग्विधाः ।। १४४ ॥ तथा ऽत्राप्युचिता वृत्तिः उपायैरेभिरंगिनाम् । नोपायान्तरमस्त्येषां प्राणिनां जीविकां प्रति । १४५ ।। कर्मभूरख जातेयं व्यतीतौ कल्पभूरुहाम् ।
ततोऽत्र कर्मभिः षड्भिः प्रजानां जीविकोचिता ।।१४६ - पर्व १६
महापुराण
पूर्व तथा पश्चिम विदेह क्षेत्र में जो स्थिति इस समय विद्यमान है, वही पद्धति यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है । उससे यह प्रजा जीवित रह सकती है । वहाँ जिस प्रकार असि, कृषि आदि छह कर्म हैं, क्षत्रिय आदि वर्ण की तथा प्राश्रम की व्यवस्था है, ग्राम,
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