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________________ तीर्थंकर [ ८३ भगवान् ने पुत्रियों के समान भरतादि पुत्रों को भी शिक्षा दी । उन्होंने अपने पुत्रों की रुचि तथा योग्यता आदि को लक्ष्य में रख कर भिन्न-भिन्न विषयों की शिक्षा दी थी । उन्होंने भरत को अर्थशास्त्र में निपुण बनाया था ( भरतायार्थशास्त्रं च ), वृषभसेन को ( जो आगे जाकर भगवान् के समवशरण में मुख्य गणधर पदवी के धारक हुए) गीत-वाद्यादि की शिक्षा दी थी । बाहुबली कुमार को आयुर्वेद, धनुर्वेद, अश्व, गजादि के तंत्र, रत्नपरीक्षा, सामुद्रिक शास्त्र आदि में निपुण बनाया था । सार की बात किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रं लोकोपकारि यत् । तत्सर्वमादिकर्ता स्वाः समन्वशिषत प्रजाः ।। १२५ ।। इस सम्बन्ध में अधिक कहने से क्या प्रयोजन है; भगवान् आदिनाथ ने जो-जो लोक-कल्याणकारी शास्त्र थे, वे सब अपने पुत्रों को सिखाए थे । भगवान् ने जिस शैली का आश्रय ले अपनी संतति को स्वयं शिक्षा दी उसके अनुसार शिक्षा की व्यवस्था कल्याणप्रद होगी । शिक्षार्थी के नैसर्गिक झुकाव एवं सामर्थ्य का विचार किए बिना सबको एक ही ढंग पर शिक्षित करने का प्रयास इष्ट फलप्रद नहीं हो सकता । भगवान् ने लोकोपकारी शास्त्रों की शिक्षा दी थी । जो शास्त्र पाप प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन दे पतन के पथ में पुरुषों को पहुँचाते हैं, वे लोकोपकारी न होकर लोकापकारी हो जाते हैं । वर्तमान युग में जीव वध तथा पापाचार के पोषण हेतु जो शिक्षा की व्यवस्था है, वह जिनेन्द्र की विचार पद्धति के प्रतिकूल है । भगवान् ने ब्राम्ही और सुन्दरी नामकी कन्याओं की शिक्षा को प्राथमिकता देकर यह भाव दर्शाया कि पुरुष वर्ग का कर्तव्य है कि वह कन्याओं को ज्ञानवती बनाने में विशेष उत्साह धारण करे | उनके शिक्षित बनने पर समाज का अधिक हित होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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