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________________ ८२ ] तीर्थकर जिस प्रकार महान उन्नत मेरु पर्वत ज्योतिषी देवों से घिरा हुया शोभायमान होता है, उसी प्रकार वृषभदेव भगवान् अपने पुत्रादि से घिरे हुए सुशोभित होते थे। आदिनाथ प्रभु का शिक्षा प्रेम भगवान् ने ब्राह्मी और सुन्दरी को विद्या प्राप्ति के योग्य देखकर कहा : इदं वपुर्वयश्चेदं इद शोल-मनीदशम् । विद्यया चेद्विभूष्येत सफलं जन्मवामिदम् ॥१७॥ पुत्रियों ! तुम दोनों का यह शरीर, यह अवस्था तथा तुम्हारा अपूर्व शील यदि विद्या द्वारा अलंकृत किया जाय, तो तुम दोनों का जन्म सफल हो जायगा । विद्यावान्पुरुषो लोके सम्मति यादि कोविदः। नारी च तद्वती धत्ते स्त्रीसृष्टेरग्रिमं पदम् ॥८॥ इस लोक में विद्यावान् पुरुष विद्वानों द्वारा सन्मान को प्राप्त करता है तथा विद्यावती नारी महिला समाज में प्रमुखता को प्राप्त करती है। तद् विद्याग्रहणे यत्नं पुत्रिके कुरुतं युवाम् । तत्संग्रहण-कालोयं युवयोर्वर्ततेधुना ॥१०२॥ अतएव हे पुत्रियों, तुम दोनों विद्या प्राप्ति के लिए प्रयत्न करो। तुम दोनों के विद्या ग्रहण करने के योग्य यह काल है । इत्युक्त्वा महुराशास्य विस्तीर्णे हेमपट्ट के । अधिवास्य स्वचित्तस्थां श्रुतदेवौं सपर्यया ॥१०३॥ विभुः करद्वयनाम्यां लिखम्नक्षरमालिकां । उपादिशल्लिपि संख्यास्थानं चाकैरनुक्रमात् ॥१०४॥ यह कहकर भगवान् ने उन दोनों को अनेक बार आशीर्वाद दिया। उन्होंने अपने अंतःकरण में विद्यमान श्रुतदेवता की पूजा की । भगवान् ने अपने एक हाथ से अक्षर मालिका और दूसरे से संख्या रूप अंकों को लिखकर ज्ञान कराया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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