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________________ ८० ] तीर्थकर परिवर्तन करने के महापाप का पता नहीं है ; ऐसी भूल सत्य महाव्रती महामुनि जिनसेन स्वामी सदृश वीतराग साधुराज कभी भी नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें कुगति में जाने का डर था। उनका महापुराण प्रथमानुयोग नामसे प्रख्यात परमागम में अन्तर्भूत होता है । प्रथमानुयोग में स्वकल्पित गप्पें नहीं रहतीं। वह सत्य प्रतिपादन से समलंकृत रहता है। स्वामी समंतभद्र ने प्रथमानुयोग के विषय में लिखा है प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् । बोधि-समाधि-निधानं, बोधति बोधः समीचीनः ॥४३॥ उत्तम ज्ञान-बोधि, समाधि के भण्डार रूप अर्थों का अर्थात् पुरुषार्थ चतुष्टय का प्रतिपादन करने वाले एक पुरुष की जीवनकथा रूप चरित्र तथा सठ शलाका पुरुषों की कथा रूप पुराण को, पुण्यदायी प्रथमानयोग कहता है। प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने 'अर्थाख्यान' विशेषण पर प्रकाश डालते हए लिखा है कि परमार्थ विषय का प्रतिपादन अर्थाख्यान है। उसका उल्लेख करने से कल्पित प्रतिपादन का निषेध हो जाता है । प्राचार्य की टीका के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं । “तस्य (प्रथमानुयोगस्य) प्रकल्पितत्व-व्यवच्छेदार्थमाख्यानमिति विशेषणं, अर्थस्य परमार्थस्य विषयस्याख्यानं प्रतिपादनं यत्र, येन वा तं ।" जिनेन्द्र भगवान कथित आगम के अर्थ में स्वेच्छानुसार परिवर्तन करने वाले व्यक्ति को तथा उसके कार्य में अर्थादि के द्वारा सहायक बनने वालों को अपने अंधकारमय भविष्य को नहीं भुलाना चाहिए । कम से कम मुमुक्षु वर्ग को विषय लोलुपी बुद्धिमानों के जाल से अपने को बचाना चाहिए । स्वतन्त्र चिंतन के क्षेत्र में प्रत्येक विज्ञ व्यक्ति को विचार व्यक्त करने के विषय में अधिकार है, किन्तु जब वह अन्य रचनाकार के मन्तव्य को विकृत कर स्वार्थ पोषण करता है तब वह अक्षम्य अपराध करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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