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________________ तीर्थंकर [ ७७ ललितसुरकुमारैरिंगितर्वयस्यैः । सममुपहितरागः सोन्वभूत् पुण्यपाकात् ॥२११॥ वे भगवान पुण्यकर्म के उदय से प्रतिदिन इन्द्र के द्वारा भेजे हुए सुगन्धित पुष्पों की माला, अनेक प्रकार के वस्त्र तथा आभूषण आदि श्रेष्ठ भोगों का अपना अभिप्राय जानने वाले सुन्दर देवकुमारों के साथ प्रसन्न होकर अनुभव करते थे । प्रभु का तारुण्य धीरे धीरे भगवान ने यौवन अवस्था को प्राप्त किया । प्राचार्य कहते हैं :-- अथास्य यौवने पूर्णे वपुरासीन्मनोहरम् । प्रकृत्यैव शशी कान्तः कि पुनश्शरदागमे ॥१५-३१॥ यौवन अवस्था पूर्ण होने पर भगवान का शरीर बहुत ही मनोहर हो गया था । सो ठीक ही है, क्योंकि चन्द्रमा स्वभाव से ही सुन्दर होता है; यदि शरद् ऋतु का आगमन हो जावे तो फिर कहना ही क्या है ? तदस्य रुरुचे गात्रं परमौदारिकाह्वयम् । महाभ्युदय-निःश्रेयसार्थानां मूलकारणम् ॥१५--३२।। अतएव भगवान का परम औदारिक नाम का शरीर शोभायमान होता था। उनका वह शरीर महान् अभ्युदययुक्त मोक्ष पुरुषार्थ का मूल कारण था। भगवान की अनुपम सौन्दर्यपूर्ण छबि को अपनी पुण्यकल्पना द्वारा निहारते हुए भूधरदास जी लिखते हैं : रहो दूर अंतर की महिमा बाहिज गुन वर्णत बल कांपै। एक हजार आठ लच्छन तन तेज कोटि रवि किरण न तापै । सुरपति सहस आंख अंजलि सों रूपामृत पीवत नहिं धाप । तुम बिन कौन समर्थ वीर जिन जगसों काढ़ मोक्ष में था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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