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________________ ७६ ] तीर्थंकर इन्द्र महाराज सदा भगवान को ग्रानन्दप्रद सामग्री पहुँचाने में हर्ष का अनुभव करते थे । 'प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोपि प्रवर्तते ' -- बिना प्रयोजन के मन्दमति की भी प्रवृत्ति नहीं होती है, तब इन्द्र की जिनेन्द्रसेवा का भी कुछ रहस्य होना चाहिये ? समृद्धि के ईश्वर सुरेन्द्र के समीप अमर्यादित सुख की सामग्री रहती है । वह स्वाधीन है । किसी का सेवक नहीं है, फिर भी वह जिनेन्द्रदेव का किंकर बना हुआ प्रभु की सेवा में स्वयं स्वेच्छा से प्रवृत्त होता है तथा दूसरों को प्रवृत्त कराता है । इस सेवा का क्या लक्ष्य है ? इन्द्र का मनोगत महान् ज्ञानी इन्द्र इस तत्व को समझता है, कि पुण्यकर्म के क्षय होने पर वह एक क्षण भी स्वर्ग में न रह सकेगा । सारा ऐश्वर्य तथा वैभव स्वप्न-साम्राज्य सदृश शून्यता को प्राप्त होगा । इन्द्र के पास सब कुछ है, किन्तु अविनाशी प्रानन्द नहीं है । उस ग्रात्मानन्द की उपलब्धि के लिये ही वह जिननाथ की निरन्तर आराधना करता है, ताकि जिनभक्ति रूपी नौका के द्वारा वह संसार समुद्र के पार पहुँच जाय । भगवान् के समीप इन्द्र यह अनुभव ही नहीं करता है, कि वह असंख्य देवों का स्वामी है, अपरिमित वैभव तथा समृद्धि का अधीश्वर है । वह तो सोचता है कि "मैं जिनेन्द्र भगवान का सेवक नहीं, उनके दास का भी सेवक हूँ। मैं जिनेन्द्र का दासानुदास हूँ ।" भगवान के लिए भोगोपभोग की सामग्री सदा स्वर्ग से प्राती रहती थी । इन्द्र को तो ऐसा लगता था, मानो स्वर्ग में कुछ नहीं है, सबसे बड़ा स्वर्ग भगवान के चरणों के नीचे है । उन चरणों के समक्ष विनीत-वृत्ति द्वारा यह जीव इतना उच्च होता है कि उसके समान दूसरा नहीं होता । महापुराणकार कहते हैं प्रतिदिनममरेन्द्र पाहृतान् भोगसारान् । सुरभि - कुसुममाला - चित्रभूषाम्बरादीन् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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