________________
तीर्थंकर
[ ६६
लोकातिशायी पुण्यशाली नर रत्नों की उत्पत्ति न होने से श्रेष्ठ चिन्हों के दर्शन भी नहीं होते हैं । यदा कदा किन्हीं विशेष पुण्यशाली व्यक्तियों के कुछ थोड़े चिन्ह पाए जाते हैं । तुलनात्मक दृष्टि से कि विविध महापुरुषों का जीवन चरित्र पढ़ा जाय तो यह ज्ञात होगा, एक हजार आठ लक्षणों से शोभायमान शरीर वाले तीर्थकर जिनेन्द्रदेव के सिवाय अन्य व्यक्ति नहीं हैं ।
तत्वार्थ राजवार्तिक में प्राचार्य अकलंकदेव ने लिखा है कि जिनवाणी के अंतर्भेद विद्यानुवाद नामक दशम पूर्व में शरीर के शुभअशुभ चिन्हों का वर्णन किया गया है । अष्टांगनिमित्त ज्ञान में अंतरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, छिन्न, व्यंजन तथा लक्षण सम्वन्धी विद्या का समावेश है । धवला टीका से विदित है कि इस निमित्तविद्या में आचार्य धरसेन स्वामी प्रवीण थे । उनको "अट्ठग-महाणिमित्त - पारएणं" अष्टांग-निमित्त विद्या का पारगामी कहा है ।
11
प्राजकल कुछ लोग प्रमाद एवं अहंकारवश व्यवस्थित रीति से जिनागम का अभ्यास न कर स्वयं एकाध अध्यात्मशास्त्र को कुछ देखकर अपने में लघु सर्वज्ञ की कल्पना करते हुए अन्य शास्त्रों के अभ्यास को निस्सार समझते हैं । प्रविवेक तथा प्रविचार पर स्थित ऐसी धारणा उस समय स्वयं धराशायी हो जाती है, जब मुमुक्षु यह देखता है कि महान आध्यात्मिक योगीजन भी लौकिक जीवन तथा वाह्य संसार से सम्बन्ध रखनेवाले शास्त्रों में भी धरसेनाचार्य सदृश श्रेष्ठ आत्मा श्रवबोध प्राप्त करते रहे हैं । ज्ञान की विविध शाखाओं के सम्यक् अवबोध द्वारा मन में असत् विकल्प नहीं उठते हैं । एक ही वस्तु में मन थककर अन्यत्र उछलकूद मचाया करता है तथा राग, द्वेष, मोह रूप विकारी भावों को अपनाता है । आगमोक्त विविध ज्ञानराशि के परिचय द्वारा आत्मा के विकार नष्ट होते हैं, अहंकार दूर होता है, तथा शांति का रस प्राप्त होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org