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________________ ७० ] तीर्थंकर भ्रान्त कल्पना कोई व्यक्ति यह सोचते हैं कि अध्यात्मशास्त्र पढ़ने से ही कर्मों का क्षय होता है; अन्य ग्रंथों के अभ्यास से बंध होता है। यह कल्पना असम्यक् है । तिलोयपण्णत्ति में लिखा है कि जिनागम के स्वाध्याय से "असंखेज्ज-गुणसेडिकम्मणिज्जरण" असंख्यात गुणश्रेणी रूप कर्मों की निर्जरा होती है। आत्म तत्व का निरूपण करने वाला प्रात्मप्रवाद द्वादशांग वाणी के पुण्य भवन का अत्यन्त मनोज्ञ, पावन तथा प्रमुख स्तंभ है किन्तु उसके सिवाय अन्य सामग्री भी महत्वपूर्ण तथा हितकारी है । उस समस्त आगम-सिधु का नाम द्वादशांगवाणी है । मानव शरीर में नेत्र का महत्वपूर्ण स्थान है, किन्त नेत्र ही समस्त शरीर नहीं है। अन्य अंगों के सद्भाव द्वारा जैसे नेत्र को गौरव प्राप्त होता है, उसी प्रकार जिनागम के विविध अंगों का सद्भाव भी गौरव संवर्धक है। कर्म तो अनात्म पदार्थ है । वह मोक्ष मार्ग में कंटक रूप है। अतएव कर्म सम्बन्धी साहित्य मुमुक्षु के जीवन में कोई महत्व नहीं रखता ! यह धारणा भ्रममूलक है । भेदविज्ञान ज्योति को प्राप्त करने के लिए जैसे स्व का ज्ञान आवश्यक है, उसी प्रकार स्व से भिन्न पर का भी बोध उपयोगी है। कर्म सम्बन्धी द्वादशांगवाणी का अंश जब षटखण्डागम सूत्र रूप में निबद्ध हुआ, तब विशाल जैन संघ ने महोत्सव मनाकर श्रुतपंचमी पर्व की नींव डाली थी। इस चर्चा द्वारा यह बात स्थिर होती है कि समस्त द्वादशांग वाणी को महत्वपूर्ण स्वीकार करना कल्याणकारी है, चाहे वह समयसार हो, चाहे वह गोम्मटसार हो, अथवा शरीर के लक्षणों और व्यंजनों का प्रतिपादक शास्त्र हो । वीतराग वाणी सर्वदा हितकारी है। है। सराग तथा अनाप्त व्यक्तियों का कथन प्रमाण कोटि को नहीं प्राप्त होता है। उससे संसार परिभ्रमण नहीं छट सकता । अंध न्यक्ति दूसरे को किस प्रकार पथ प्रदर्शन करने में समर्थ हो सकता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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