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तीर्थकर भगवान में प्रारम्भ से ही विरक्तता है, इसका प्राधार यह है, कि वे जब माता के गर्भ में आने के समय से लेकर आठ वर्ष की अवस्था के होते हैं, तब वे सत्पुरुषों के योग्य देशसंयम को ग्रहण करते हैं। उत्तरपुराण में लिखा है
स्वायुराद्यष्टवर्षेभ्यः सर्वेषां परतो भवेत् ।
उदिताष्टकषायाणां तीर्थेषां देशसंयमः ॥६--३५
सब तीर्थकरों के अपनी आयु के प्रारंभ से आठ वर्ष के आगे से देशसंयम होता है, कारण उनके प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलन कषायें उदयावस्था को प्राप्त हैं। यदि प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय न होता, तो वे महाव्रती बन जाते ।
ततोस्य भोगवस्तूनां साकल्येपि जितात्मनः ।
वृत्तिनियमितैकाभूदसंख्येयगुणनिर्जरा ॥६--३६॥
यद्यपि इन जिनेन्द्र देव के भोग्य वस्तुओं की परिपूर्णता थी, फिर भी वे जितेन्द्रिय थे। उनकी प्रवृत्ति नियमित रूप से ही होती थी, इससे उनके असंख्यातगुणी निर्जरा होती थी।
शुभ लक्षण
लोकोत्तर त्याग, तपस्या तथा पवित्र मनोवृत्ति के फल स्वरूप भगवान का शरीर सर्व सुलक्षण संपन्न था । सामुद्रिक शास्त्र में एक हजार आठ लक्षणों का सद्भाव श्रेष्ठ प्रात्मा को सूचित करता है। भगवान् के शरीर में वे सभी चिन्ह थे। महापुराणकार कहते हैं
अभिरामं वपुर्भर्तुः लक्षणरभिरुजितः। ज्योतिभिरिव संछन्नं गगनप्रांगणं बभौ ॥१५--४५॥
मनोहर तथा श्रेष्ठ लक्षणों से अलंकृत भगवान का शरीर ज्योतिषी देवों से व्याप्त आकाश रूपी प्रांगण के समान प्रतीत होता था।
__उनके शरीर में शंख, चक्र, गदादि १०८ चिन्ह (लक्षण) तथा तिल, मसूरिकादि नौसौ व्यंजन थे। आज के भोगप्रचुर युग में
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