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________________ तीर्थकर [ ६७ के असदाचार प्रचुर युग का शरीर-शास्त्रज्ञ वर्तमान युग के हीनाचरण मानवों के रक्त को शोधकर उपरोक्त विचारपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करता है। यदि यह कथन सत्य है, तो तीर्थंकर भगवान के शरीर के रुधिर की धवलता को स्थूल रूप से समझने में सहायता प्राप्त होती है। रक्त में विरक्तता ___ एक बात और है ; भगवान प्रारम्भ से ही सभी लोगों के प्रति आसक्ति रहित हैं; अतएव विरक्त आत्मा का रक्त यदि वि रक्त अर्थात् विगत रक्तपना, लालिमा शून्यता संयुक्त हुआ, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है । विरक्तों के आराध्य देव का देह सचमुच में वि रक्त परमाणुओं से ही निर्मित मानना पूर्ण संगत है । सरागी जगत् के लोगों का शरीर विषयों में अनुरक्त रहने से क्यों न रक्त वर्ण का होगा ? भगवान का रोम रोम विषयों से विरक्त था । इतना ही नहीं उनकी वाणी विरक्तता अर्थात् वीतरागता का सदा सिंहनाद करती थी। मौन स्थिति में उनके शरीर से ऐसे परमाणु बाहर जाते थे, जिससे उज्ज्वल ज्योति जागती थी, इसी अलौकिकता के कारण सौधर्मेन्द्र सदा प्रभु के चरणों का शरण ग्रहण करता था। भगवान के हृदय में, विचार में, जीवन में जैसी विरक्तता थी, वैसी ही उनके रुधिर में विरक्तता थी। इन्द्र भी चाहता था कि प्रभु की अंतः बाह्य विद्यमान विरक्तता मुझे भी प्राप्त हो जाय । वैसे देवों के शरीर में भी विरक्त पना है, किन्तु प्रांतरिक विरक्तपना के बिना बाह्य विरक्तपना शव का शृंगार मात्र है। औदारिक शरीरधारी होकर अंत: वाह्य विरक्तपना के धारक तीर्थकर ही होते हैं । सरागी शासन में इस विरक्तता की कल्पना नहीं हो सकती ; यह बात तो वीतरागी शासन में ही बताई जा सकती है। वैभव-शून्य व्यक्तिं वैभव के शिखर पर स्थित श्रेष्ठात्माओं की कल्पना भी नहीं कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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