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________________ ६६ ] तीर्थंकर होता है। इस विषय में यह बात गंभीरता पूर्वक विचारणीय है कि अपने पुत्र के लिये स्नेह से क्षण भर में माता के स्तन में दुग्ध आ जाता है। माता रुक्मणी ने प्रद्युम्न को देखा ही था कि उसके हृदय में नैसर्गिक स्नेह भाव उत्पन्न होने से स्तनों में दुग्ध आ गया था। इस शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक व्यवस्था को ध्यान में रखने से यह बात अनुमान करना सम्यक् प्रतीत होता है कि जिनेन्द्र भगवान् के रोम-रोम में समस्त जीवों के प्रति सच्ची करुणा, दया तथा प्रेम के बीज परिपूर्ण है। तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते समय दर्शन-विशुद्धि भावना भाई गई थी। दूसरे शब्दों में उसका यह रहस्य है कि भगवान ने विश्वप्रेम के वृक्ष का बीज बोया था, जो वृद्धि को प्राप्त हुआ है और केवलज्ञान काल में अपने फल द्वारा समस्त जगत् को सुख तथा शांति प्रदान करेगा। एकेन्द्रिय वनस्पति तक प्रभु के विश्वप्रेम की भावना रूप जल से लाभ प्राप्त करेगी। इसी से केवलज्ञान की उल्लेखनीय महत्वपूर्ण बातों में कहा है, कि सौ योजन की पृथ्वी धान्यादि से हरी-भरी हो जाती है। भगवान् का हृदय संपूर्ण जीवों को सुख देने के लिए जननी के तुल्य है । समंतभद्र स्वामी ने भगवान् सुपार्श्वनाथ के स्तवन में उन्हें 'मातेव बालस्य हितानुशास्ता' बालक के लिए कल्याणकारी अनुशासनदात्री माता के समान होने कारण मातृ-तुल्य कहा है । प्राणी मात्र के द:ख दूर करने की भावना तथा उसके योग्य सामर्थ्य और साधन सामग्री समन्वित मातृतस्क जिनेन्द्र के शरीर में रुधिर का श्वेतवर्ण युक्त होना तीर्थकर की उत्कृष्ट कारुणिक वृत्ति तथा महत्ता का परिचायक प्रतीत होता है। ___ शरीर सम्बन्धी विद्या में प्रवीण लोगों का कहना है, कि महान बुद्धिमान, सदाचारी, कुलीनतादि संपन्न व्यक्तियों के रक्त में रक्तवर्णीय परमाणु पुंज के स्थान में धवलवर्णीय परमाणु पुंज (White Blood Corpuscles) विशेष पाए जाते हैं। आज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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