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तीर्थकर
[ ५७ यहाँ भगवान के माता-पिता के सम्मान कार्य के लिए श्लोक म 'पूजा' का वाचक 'पूजयामास' शब्द पाया है। इसके प्रकाश में पूजा के प्रकरण में उत्पन्न अनेक विवाद सहज ही शांत हो जाते हैं। पूजा का अर्थ है सन्मान करना । पूज्य की पात्रता आदि को ध्यान में रखकर यथायोग्य पूजा करना पूजक की विवेकमयी दृष्टि पर आश्रित है । वीतराग भगवान की पूजा तथा अन्य की पूजा में पूजा शब्द के प्रयोग की अपेक्षा समानता होते हए भी उसके स्वरूप तथा लक्ष्य में अन्तर है । प्रस्तुत प्रसङ्ग में जिनेन्द्र देव की पूजा, आराधना का लक्ष्य संसार-सताप का क्षय करना है। जिनेन्द्र जनक-जननी की पूजा शिष्टाचार तथा भद्रतापूर्ण व्यवहार है । पुत्र की पूजा करके पितामाता की उपेक्षा करना इन्द्र जैसी विवेकीग्रात्मा के लिये अक्षम्य अशोभन बात होगी। पजा शब्द को सुनने मात्र से घबड़ाना नहीं चाहिये । अर्थ पर दृष्टि रखना विवेकी का कर्तव्य है ।
इन्द्र द्वारा स्तुति
महापुराण के शब्दों में इंद्र ने महाराज नाभिराज की स्तुति में कहा---
भो नाभिराज सत्यं त्वं उदयाद्रिमहोदयः। देवी प्राच्येव यज्ज्योतिः युष्मत्तः परमुद्बभौ ॥१॥
हे नाभिराज ! वास्तव में आप ऐश्वर्यशाली उदयाचल हैं प्रौर रानी मरुदेवो पूर्व दिशा है, क्योंकि जिनेन्द्र सुत-स्वरूप-ज्योति आपसे ही उत्पन्न हुई है।
देवधिष्ण्यमिवागारम् इदमाराध्यमछ वाम्। पूज्यौ युवां च नः शश्वत् पितरौ जगतां पितुः ॥पर्व १४-८२॥
आज आपका भवन हमारे लिए जिनेन्द्र-मन्दिर सदृश पूज्य है (साक्षात् बाल-जिनेन्द्र उस भवन में प्रत्यक्ष नयनगोचर हो रहे हैं) । आप जगत् के पिता भगवान के भी माता-पिता हैं, अतएव हमारे लिए सदा पूज्य हैं।
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