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________________ तीर्थकर धर्मशर्माभ्युदय में लिखा है-- उत्संगमारोप्य तमंगजं नृपः परिष्वजन्मीलितलोचनो बभौ । अंतर्विनिक्षिप्य सुखं वपुर्ग हे कपाटयोः संघटयग्निव द्वयम् ॥६-११॥ पिता ने अपने अङ्ग से उत्पन्न अङ्गज अर्थात् पुत्र को गोद में लिया तथा प्रालिङ्गन किया। उस समय उनके दोनों नेत्र बन्द हो गए थे। शंका इन्द्र ने जब प्रभु का प्रथम बार दर्शन किया था, तब वह तो सहस्त्र नेत्रधारी बना था, किन्तु यहाँ त्रिलोकीनाथ के पिता ने मनुष्य को सहज प्राप्त चक्षयगल का उपयोग न ले उनको भी क्यों बन्द कर लिया था ! इस शंका के समाधान हेतु महाकवि के उक्त पद्य का उत्तरार्ध ध्यान देने योग्य है । कवि का कथन है कि-"पिता ने भगवान के दर्शनजनित सुख को शरीर रूपी भवन के भीतर रखकर नेत्ररूपी कपाटयुगल को बन्द कर लिया, जिससे वह हर्ष बाहर न चला जाय।" कितनी मधुर तथा आनन्ददायी उत्प्रेक्षा है ? एक नरभव धारण करने के पश्चात शीघ्र ही सिद्ध भगवान बनकर भगवान के साथ में सिद्धालय में निवास करने के सौभाग्य वाले इन्द्र की भक्ति, विवेक तथा प्रवीणता परम प्रशंसनीय थी। सुविज्ञ सुरराज ने जिनराज के माता-पिता का भी समुचित समादर किया । महापुराणकार लिखते हैंमाता-पिता की पूजा का भाव तसस्तो जगतां पूज्यौ पूजयामास वासवः । विचित्रभूषणैः अग्भिः अंशुकैश्च महार्घकैः ॥१४---७८॥ इसके अनन्तर सुरराज ने महामूल्य तथा आश्चर्यकारी आभूषणों, मालाओं तथा वस्त्रों से जगत्-पूज्य जिनेन्द्र के मातापिता की पूजा की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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