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________________ तीर्थकर [ ५५ माहेन्द्र स्वर्ग के मानस्तम्भों में पूर्वापर विदेह के तीर्थंकरों के भूषण रहते हैं। (त्रिलोकसार गाथा ५२१, ५२२) प्रभु का जन्मपुरी में आगमन सुन्दर वस्त्राभूषणों से प्रभु को समलंकृत कर सुरराज ने अपने अंतःकरण के उज्ज्वल भावों को श्रेष्ठ स्तुति के रूप में व्यक्त किया । पश्चात् वैभव सहित वे देव-देवेन्द्र ऐरावत गज पर प्रभु को विराजमानकर अयोध्यापुरी आए । इन्द्र ने महाराज नाभिराज के सर्वतोभद्र महाप्रासाद में प्रवेशकर श्रीगृह के आँगन में भगवान को सिंहासन पर विराजमान किया। उस समय क्या हुआ, यह महापुराणकार के शब्दों में ध्यान देने योग्य है नाभिराजः समुद्भिन्नपुलकं गात्रमद्वहन् । प्रीतिविस्फारिताक्षस्तं ददर्श प्रियदर्शनम् ॥७४॥ मायानिद्रामपाकृत्य देवी शच्या प्रबोधिता। देवीभिः सममैक्षिष्ट प्रहृष्टा जगतां पतिम् ॥१४--७५॥ महाराज नाभिराज उन प्रियदर्शन भगवान को प्रेम से विस्तृत नेत्र करके रोमाञ्चयक्त शरीर होकर देखने लगे। माया निद्रा को दूरकर इन्द्राणी के द्वारा प्रबोध को प्राप्त जिन जननी ने अत्यन्त आनन्दित हो देवियों के साथ भगवान का दर्शन किया । माता-पिता का वर्णनतीत प्रानन्द गर्भ में प्रभु के आगमन के छह माह पूर्व से ही रत्नों की वर्षा द्वारा भगवान के जन्म की सूचना पाए हुए माता-पिता को इस समय प्रभु का दर्शन कर जो कल्पनातीत सुख प्राप्त हुआ, वह कौन बता सकता है ? तीर्थंकर के जन्म से जब जगत् भर के जीवों को अपार आनन्द प्राप्त हुआ, तब उनके ही माता-पिता के प्रानन्द की सीमा बतान की कौन धृष्टता करेगा ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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