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श्रु ०१, अ०३, उ०३ गाथा १५ ७१
गाथांक
द्वितीय उद्देशक - अनुकूल उपसर्ग
१ अनुकूल उपसर्गों से संयम की अधिक हानि
२ - ६ विविध प्रकार के अनुकूल उपसर्गों से संयम त्यागकर पुनः गृही
बनना
१० भिक्षु को परिवार का मोह बांध लेता है यथा- वृक्ष को लता ११ भिक्षु के गृहस्थ बनने पर परिवार वालों का घेरे रहना
सूत्रकृतांग- सूची
१२ स्वजन स्नेह समुद्र की तरह दुस्तर है, स्नेह बंधन से दुःख १३ स्वजन संसर्ग महाश्रव, धर्म श्रवण के पश्चात् असंयमी जीवन की इच्छा का निषेध
१४ बुद्धों का आवर्ती से हटना और अबुद्धों का आवर्ती में फंसना १५-१८ राजा आदि द्वारा भिक्षु से भोग भोगने का आग्रह
१६ भिक्षु को प्रलोभन, यथा -- चांवलों का सूअर को प्रलोभन २० ऊंचे मार्ग में यथा दुर्बल वृषभ का गिरना, तथैव संयम मार्ग में आत्मबल हीन श्रमण का गिरना
२१ संयमी जीवन और तपश्चर्या के
कष्टों से संयमी जीवन से पतन, यथा-ऊंचे मार्ग में वृद्ध २२ भोगों में आसक्त भिक्षु का पुनः गृही जीवन
तृतीय उद्देशक- परवादी वचन जन्य अध्यात्म दुःख
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गाथांक
१- ५ संयम भीरु और युद्ध भीरु की तुलना
६-७ युद्धवीर और संयमवीर की तुलना
८- आक्षेप वचन कहनेवाले अन्यतीर्थी समाधिभावको प्राप्त नहीं
होते
पीड़ित भिक्षु का
वृषभ का पतन
स्वीकार करना
१०-१५ वांस के अग्रभाग के समान अन्य तीर्थियों को दुर्बल आक्षेप का विवेक पूर्ण प्रत्युत्तर
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