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________________ अ० १७ गाथा १६ उत्तराध्ययन-सूची अतिमात्रा में आहारादि का न करना शृंगार न करना मनोज्ञ शब्दादि का सेवन न करना १-१० उक्त दस स्थानों की दस गाथाएँ ११-१३ ब्रह्मचारी के लिये दस स्थानों का सेवन तालपुट विष के समान है १४ ब्रह्मचारी के लिये सभी शंका स्थानों का निषेध १५-१६ ब्रह्मचर्य की महिमा उपसंहार--ब्रह्मचर्य से शिवपद की प्राप्ति or wrxur 9 v aor worrrrr सत्तरह हाँ पाप श्रमण अध्ययन निग्रंथ धर्म को जानकर के भी स्वच्छन्द घूमने वाला शयनासन में प्रमत्त, अध्ययन से विमुख अधिक आहार और अधिक निद्रा-लेने वाला जिनसे ज्ञान प्राप्त किया उनकी ही निन्दा करने वाला अविनयी और अभिमानी प्राणियों का उत्पीड़क. बीजादि वनस्पतियों का संहारक अपमाजित संस्तारक आदि काउपभोक्ता अविवेक से चलने वाला अविधि से प्रतिलेखन करने वाला गुरुजनों का तिरस्कार करने वाला मायावी, बहुभाषी, अभिमानी, लोभी, विषयी, लोलुप, द्वेषी कलह प्रिय. अस्थिर-चंचल प्रमार्जन न करने वाला और अविवेक से हाथ फैलाने वाला विकार वर्द्धक आहार करने वाला और तपश्चर्या न करने वाला अनियमित भोजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001931
Book TitleJainagama Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1966
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_index
File Size9 MB
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