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________________ १३८ क आचारांग-सूची ४६ श्रु०२ अ०४ उ०२ सू० १३६ ,, , न करने वाले वाक्य कहना किले आदि को देखकर सावध भाषा के प्रयोग का निषेध ,, , , निरवद्य ,, , विधान १३७ क आहार के सम्बन्ध में सावध भाषा के प्रयोग का निषेध ख __ " , निरवद्य , विधान मनुष्य पशु आदि के सम्बन्ध में सावध भाषा के प्रयोग का निषेध मनुष्य पशु , , , निरवद्य , , विधान गाय-बैल के , सावद्य , , निषेध , , निरवद्य ,,, विधान उद्यान में खड़े बड़े वृक्षों के सम्बन्ध में सावध भाषा के प्रयोग का निषेध उद्यान या वन में खड़े बड़े वृक्षों के सम्बन्ध में निरवद्य भाषा के प्रयोग का विधान फलों के सम्बन्धमें सावध भाषा के प्रयोग का निषेध , निरवद्या , विधान धान्यके संबंधमें सावध , निषेध , , निरवद्य , विधान शब्द सुनकर सावध भाषा का प्रयोग न करना __, , निरवद्य न करना रूप देखकर सावध न करना निरवद्य करना गंध संघकर सावध न करना ,, , निरवद्य करना रस का आस्वादनकर सावध न करना करना -958 निरवद्य , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001931
Book TitleJainagama Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1966
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_index
File Size9 MB
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