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________________ सूत्र १८६-१६५ ६११ जीवाभिगम-सूची १८६ क- द्वीप-समुद्रों के उद्धार समय ख- द्वीप-समुद्रों के उद्धार समय १६० क- द्वीप-समुद्रों का पृथ्वी परिणमन-यावत्-पुद्गल परिणमन ख- सर्व द्वीप समुद्रों में सर्वजीवों की उत्पत्ति इन्द्रियों के विषय १६१ क- पाँच इन्द्रियों के विषय ख. श्रोत्रेन्द्रिय के दो विषय-यावत् स्पर्शन्द्रिय के दो विषय ग- सुशब्द का दुःशब्द रूप में परिणमन-यावत्-सुस्पर्श का दुःस्पर्श रूप में परिणमन ज्योतिष्क उद्देशक देवता श्री गति १६२ क- देवता की दिव्य गति देवता की वैक्रेय शक्ति ख- बाह्य पुद्गलों के ग्रहण से ही विकुर्वणा का कर सकना ग. सूक्ष्म देव वैकेय को छद्मस्थ द्वारा न देख सकना घ- बालक का छेदन-भेदन किये बिना बालक का ह्रस्व-दीर्घकरण का सामर्थ्य १६३ क- चन्द्रसूर्थों के नीचे समान और ऊपर छोटे बड़े ताराओं का अस्तित्व ख- ऐसा होने का कारण १६४ एक एक चन्द्र-सूर्य का परिवार परिमाण १६५ क. जम्बूद्वीप के मेरु से ज्योतिषी देवों के गतिक्षेत्र का अन्तर ख- लोकान्त से ज्योतिषी देवों के गतिक्षेत्र का अन्तर ग- रत्नप्रभा के उपरिभाग से ताराओं का अन्तर घ. रत्नप्रभा के उपरिभाग से सूर्य विमान का अन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001931
Book TitleJainagama Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1966
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_index
File Size9 MB
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