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________________ ( २१ ) गाई गई । एक दिन जो असंयम का हेतु माना गया था । वही संयम' का हेतु मान लिया गया। फिर भी पुस्तक अपवाद रूप में ही ग्रहण किया गया- क्योंकि सभी श्रमण श्रमणियों की समान धारणा-शक्ति नहीं होती । कुछ अल्पधारणा शक्तिवाले भी होते हैं । उनके लिए पुस्तक रखना उपयोगी था और आज भी उपयोगी है । लेखन का स्थान मुद्रण ने लिया तो जैनागमों का भी मुद्रण होने लगा और मुद्रण का भी घोर विरोध हुआ । विरोध करनेवालों ने कहा निर्ग्रन्थ प्रवचन के विरोधी मुद्रित प्रतियाँ प्राप्त करके छिद्रान्वेषण करेंगे और यत्र तत्र पारिभाषिक शब्दों का मनमाना अर्थ करके भ्रान्तियाँ पैदा करेंगे । अपवाद विधानों का रहस्य समझे बिना श्रमण संस्कृति का उपहास करेंगे। किन्तु इन तर्कों में कोई तथ्य नहीं है । आगम लेखन काल से कई शताब्दी पूर्व सात निन्हव हो गये थे । ये सब प्रवचन- निन्हव थे । प्रवचन उड्डाह की परिकल्पना भी बहुत पहले हो चुकी थी । ऐसी स्थिति में प्रकाशन का विरोध करके प्रकाशन से होनेवाले असाधारण लाभ से जन साधारण को वंचित रखना सर्वथा अनुचित है । 'आगम - अनुयोग' ग्रन्थराज के प्रकाशन मेंसांडेराव के स्थानकवासी संघ का महत्वपूर्ण योगदान सांडेराव ऐतिहासिक नगर है । बांकलीवास नगरके एक मोहल्ले का नाम है, स्थानकवासी जैनों की अधिक संख्या इसी मोहल्ले १ उवगरण संजमो पोत्थए अजमी वज्जणं तु संजमो । कालं पडुच्च चरण-करण अव्वोच्छित्तिनिमित्तं गेण्हंतस्स संजमो भवति ।। २ संडेर गच्छ की उत्पत्ति से इस नगर का संबंध रहा है, ऐसे ऐतिहासिक उल्लेख हैं । यहाँ श्वे ० जैनों के ४०० घर हैं, दो जैन मन्दिर हैं, दो जैन स्थानक हैं, राजकीय चिकित्सालय और प्राथमिक शाला है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001931
Book TitleJainagama Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1966
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_index
File Size9 MB
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