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________________ ( २० ) का पठन-पाठन अनिवार्य है । यह मानने में भी किसी को कोई आपत्ति भी नहीं है । फिर भी पुस्तक का विवेकपूर्ण सीमित उपयोग हो उचित है । श्रमणोपासक वर्ग इस सम्बन्ध में अपने उत्तरदायित्व को समझे और निभाए तो पुस्तक का अपवाद रूप में उपयोग आज भी सम्भव है । पुस्तक लेखन और मुद्रण का विरोध जैनागम जब सर्व प्रथम लिखे गए उस समय लिखने का घोर विरोध हुआ था । विरोध करनेवाला संयमनिष्ठ सर्वश्रेष्ठ श्रमणवर्ग था । अतः आगम लेखन भी अपवाद रूप में ही स्वीकार किया गया और पुस्तक लेखन एवं पुस्तक के रखने के प्रायश्चित्त का नव विधान' हुआ । विरोध करनेवाले श्रमणवर्ग की लेखन के विरोध में दी हुई युक्तियाँ" अहिंसा की दृष्टि से सर्वोत्तम हैं। उनका जबाब न किसी के पास पहले था और न आज ही है । युग ने स्वर बदला और पुस्तक लिखने की महिमा १ एक अक्षर लिखने का, एक बार पुस्तक बांधने का तथा एक पुस्तक रखने का चार लघु प्रायश्चित्त का विधान है । २ पुस्तक पंचक में दी हुई युक्तियाँ विचारणीय हैं- (क) जाल में फंसा हुआ पशु या पक्षी (ख) जाल में फंसी हुई मछली ( ग ) घानी ( तिल आदि पीलने का यन्त्र ) में पड़ा हुआ तिल कीट (घ) वधिकों से घिरा हुआ प्राणी (ङ) दूध आदि तरल पदार्थों में पड़े हुए प्राणी (च) तेल आदि स्निग्ध पदार्थों में पड़े हुए प्राणी दैवयोग से बच जाते हैं किन्तु पुस्तक के बीच में दबा हुआ प्राणी किसी प्रकार बच नहीं सकता । ३ न ते नरा दुर्गतिमाप्नुवन्ति, न मूकतां नैव जड़स्वभावम् । न चान्धतां बुद्धिविहीनतां च ये लेखन्तीह जिनस्य वाक्यम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001931
Book TitleJainagama Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1966
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_index
File Size9 MB
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