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________________ २४६ २४७ श्रु०१, अ०४, उ०१ सू० २५० १४० स्थानांग-सूची यावत्-पराक्रम सूत्र २३६ के समान फलदान २४२ फलदान-चार प्रकार के कोरक (मंजरी) इसी प्रकार चार प्रकार के पुरुष २४३ तप-चार प्रकार के धुन, इसी प्रकार चार प्रकार के भिक्षु २४४ चार प्रकार का तृण वनस्पतिकाय २४५ चार कारणों से नैरिकों का मनुष्य लोक में न आसकना, निग्रंथियों को कल्पनीय चार चद्दरें और उनका परिमाण चार ध्यान, प्रत्येक ध्यान के चार चार प्रकार, ध्यान के लक्षण, आलंबन और अनुप्रेक्षा २४८ चार प्रकार की देव-स्थिति ख- , , का संवास-मैथुन २४६ क- चौवीस दंडकों में चार कषाय ख- चौवीस दंडको में कषायों के चार आधार स्थान ,, की उत्पत्ति के चार कारण घ-ङ- चार प्रकार का क्रोध च-छ-, , मान ज-झ-,, , माया ज-ट- ,, ,, लोभ २५० क- (चौवीस दंडकों में) अतीत काल में आठ कर्म प्रकृतियों के चयन के चार करण वर्तमान भविष्य ख- चौवीस दंडकों में तीन काल में आठ कर्म प्रकृतियों के उप चयन के चार कारण ग- " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001931
Book TitleJainagama Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1966
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_index
File Size9 MB
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