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________________ ( १४ ) ८ कतिपय रूपक | & शुभाशुभ कर्मफलों का वर्णन । विषय निर्देशन में बाधाएँ १. सर्व प्रथम आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की समस्या सामने आई । यह समस्या थी सूत्र संख्या को मेरे सामने आचारांग की इतनी प्रतियाँ हैं क- जर्मन डा० शुबिंग सम्पादित प्रति, देवनागरी लिपि संस्करण । ख- प्रो० रवजी भाई देवराज सम्पादित, द्वितीय संस्करण | ग- आगमोदय समिति, सूरत । घ- आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज सम्पादित । इन सब प्रतियों में प्रथम श्रुतस्कन्ध के सूत्रों की संख्या भिन्न-भिन्न है, अतः प्रत्येक सूत्र का आदि और अन्त समान नहीं है । किस प्रति के सूत्रांक सही हैं - यह निर्णय करना सामान्यतया कठिन है। जैनागम-निर्देशिका में प्रथम श्रुतस्कन्ध को सूत्र संख्या में एकरूपता नहीं है । अर्थात् - एक किसी प्रति के आधार सूत्र संख्या नहीं दी हैं । एक सूत्रान्तर्गत भिन्नभिन्न विषयों का निर्देशन वर्णमाला द्वारा किया है । २. सूत्रकृतांग, दश त्रैकालिक, उत्तराध्ययन आदि में अनेक औपदेशिक गाथाएं ऐसी हैं जिनमें एक से अधिक विषय हैं, उन सब विषयों का निर्देशन वर्णमाला द्वारा किया गया है । जिस अध्ययन का आद्योपान्त एक ही विषय है उसका मैंने भी एक ही विषय दिया है । यथा - सूत्रकृतांग अ० ४, ५, ६ का विषय । मुख्य विषय का शीर्षक १२ प्वाइंट सोनो ब्लैक में दिया है और उसके अन्तर्गत विषय १२ प्वाइंट ह्वाइट में दिये हैं । यह क्रम जैनागम-निर्देशिका में सर्वत्र है । ३. स्थानांग के सूत्रांक आगमोदय समिति सूरत की प्रति के अनुसार दिये हैं । इन सूत्रों में अनेक सूत्र ऐसे हैं जिनके अंतर्गत अनेक सूत्र हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001931
Book TitleJainagama Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1966
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_index
File Size9 MB
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