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________________ ( १५ ) टीकाकार भ यत्र-तत्र इन सूत्रों की संख्या का निर्देश स्वयं करते हैं । टीकाकार सम्मत सूत्र - संख्या सम्पूर्ण स्थानांग को जानने के लिए बहुत बड़े उपक्रम की आवश्यकता थी, किन्तु मैं ऐसा न कर सका । फिर भी विषय निर्देशन में बहुत सावधानी बरती है । जहाँ तक हो सका है किसी विषय को छोड़ा नहीं है । ४. समवायांग के सूत्रांक 'जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगर' से प्रकाशित प्रति के दिये हैं । इस प्रति में प्रत्येक समवाय के सूत्रांक क्रमशः दिये हैं । किन्तु टीकाकार प्रत्येक समवाय में कई सूत्र मानते हैं । जैनागमनिर्देशिका में प्रत्येक सूत्र का विषय निर्देशन किया है । ५. भगवती सूत्र की एकमात्र प्रति पं० बेचरदास जी सम्पादित मेरे सामने है । अब तक प्रकाशित भगवती सूत्र की प्रतियों में सर्वशुद्ध यही संस्करण है । इसके प्रथम भाग में दो शतक हैं, प्रथम शतक की प्रश्नोत्तर संख्या ३२६ है और द्वितीय शतक की प्रश्नोत्तर संख्या ७६ है । तृतीय शतक से प्रत्येक उद्देशक की प्रश्नोत्तर संख्या दी गई है । इसलिए एकरूपता नहीं है । वर्णनात्मक सूत्रों के सूत्रांक और प्रश्नोत्तरांक भिन्न-भिन्न नहीं दिए हैं अतः यह पता नहीं चलता कि वास्तव में इस उद्देशक में प्रश्नोत्तर कितने हैं और सूत्र कितने हैं । इस प्रति में जहाँजाव एवं जहा आदि से संक्षिप्त पाठ दिए हैं उनमें प्रश्नांक या सूत्रांक कितने होते हैं । यह अंकित नहीं है इसलिए प्रश्नोत्तरों को निश्चित संख्या जानना सरल नहीं है । विषय निर्देशन में मैंने इसी प्रति का उपयोग किया है किन्तु प्रश्नोत्तरांकों की एकरूपता नहीं रह सकी । ६. विषय निर्देशन के लिए जिन प्रतियों का उपयोग किया है उनकी सूची अन्यत्र दी है । अनुवाद एवं टीका के शुद्ध संस्करण आगमों के अब तक अप्राप्य हैं । यही एक बहुत बड़ी कठिनाई विषय- निर्देशन में रही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001931
Book TitleJainagama Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1966
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_index
File Size9 MB
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