SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रु०१, अ०३ उ०१ सू० १४२ १२३ स्थानांग-सूची ध- तीन कारणों से देवताओं के चैत्यवृक्ष कम्पित होते हैं न- " लोकांतिक देव मनुष्य लोक में आते हैं १३५ तीन का प्रत्युपकार दुष्कर है १३६ तीन कारणों से अनगार संसार का अंत करता है १३७ क- तीन प्रकार की अवसर्पिणी " उत्सर्पिणी १३८ क- तीन कारणों से अच्छिन्न पुद्गल चलित होते हैं ख- तीन प्रकार की उपधि ग- पन्द्रह दण्डकों में तीन प्रकार की उपधि ग- तीन प्रकार का परिग्रह घ. चौदह दण्डकों में तीन प्रकार का परि ग्रह ङ- तीन प्रकार का परिग्रह च- चौवीस दण्डकों में तीन प्रकार का परिग्रह १३६ क- तीन प्रकार का प्रणिधान , सुप्रणिधान ग- संयत मनुष्यों का तीन प्रकार का सुप्रणिधान घ- तीन प्रकार का दुष्प्रणिधान ङ- सोलह दंडकों में तीन प्रकार के दुष्प्रणिधान क- तीन प्रकार की योनी ख- नव दंडकों में तीन प्रकार की योनि ग- तीन प्रकार की योनी घ- दश दंडकों में तीन प्रकार की योनी ङ- तीन प्रकार की योनी च- " कूमोन्नित योनि में उत्पन्न होने वाले तीन प्रकार के उत्तम पुरुष १४१ तीन प्रकार के तृण वनस्पतिकाय १४२ अढाई द्वीप में तीर्थ १४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001931
Book TitleJainagama Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1966
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_index
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy