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श्रु०१, अ०१५, उ०१ गाथा २५ ८४
सूत्रकृतांग-सूची
६-७
संशय मिटाने वाला सर्वत्र नहीं होता सर्वज्ञोक्त सत्य ही सुभाषित है, मैत्रीभाव का उपदेश अविरोध ही श्रमण धर्म है, धर्म भावना का उपदेश भावना से आत्म-शूद्धि एवं निर्वाण पाप स्वरूप का ज्ञाता और नये पाप कर्मों को न करने वाला कर्मों से मुक्त होता है स्त्रियों के मोह से मुक्त पुरुष ही मुक्त होता है मोक्षमार्ग का दर्शक ही मुक्त होता है धर्मोपदेश का प्रत्येक प्राणी पर भिन्न २ प्रभाव, मुक्तपुरुष के लक्षण
८-६
११
१२ स्त्री संग से भवभ्रमण
प्राणीमात्र के साथ अविरोध रखने वाला परमार्थ दर्शी है अनाकांक्षी ही मार्ग दर्शक है, मोह का अंत ही संसार का
अन्त है १५ रूखा सूखा खाने वाला निष्काम श्रमण मुक्त होता है १६-१७ शिवपद और स्वर्ग का अधिकारी मनुष्य है, अमनुष्य (देव
तिर्यंच आदि) नहीं—मनुष्य भव की दुर्लभता बोधि और शुभ लेश्या दुर्लभ है धर्मोपदेशक का भव भ्रमण नहीं होता मुक्त का पुनरागमन नहीं होता, तीर्थंकर और गणधर लोक के नेत्र हैं
काश्यप कथित संयम के पालने से निर्वाण की प्राप्ति २२ पापकर्मों का अकर्ता ही मुक्त होता है २३-२४ संयम से शिवपद और स्वर्ग २५ रत्नत्रय की अराधना से भव भ्रमण नहीं होता
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