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________________ सूत्रकृतांग-सूची ८३ श्रु०१, अ०१५, उ०१ गाथा १ ८-१२ हित शिक्षा देने वाले पर क्रोध न करना अपितु प्रसन्न होना जिन वचनों से धर्म के स्वरूप का ज्ञान प्राणातिपात विरमण प्रश्न पूछने की विधि प्राणातिपात विरमण, समिति, गुप्ति और अप्रमाद का उपदेश आचार का ज्ञाता एवं शुद्ध आहार लेनेवाला मुक्त होता है विवेकपूर्वक प्रश्नों का उत्तर देने वाला धर्मोपदेशक मुक्त होता है प्रश्नों का यथार्थ उत्तर देना, आत्म प्रशंसा और अन्य का उपहास न करे, आशीर्वाद न दे आशीर्वाद न दे, मंत्र प्रयोग और अधर्मोपदेश का निषेध, निस्पृह रहने का उपदेश हास्य, अप्रिय सत्य, प्रतिष्ठा की कामना और कषाय का निषेध भाषा विवेक और समभाव का उपदेश प्रश्नों का संक्षिप्त एवं सरस भाषा में उत्तर देना प्रश्न का उत्तर विस्तृत देना हो तो भी निर्दोष भाषा में देना आगमोक्त सिद्धान्तों का उपदेष्टा भाव समाधि को प्राप्त होता है सूत्र का यथार्थ अर्थ करना सूत्र का शुद्ध उच्चारण और यथार्थ अर्थ करने वाला तपस्वी भाव समाधि को प्राप्त होता है पंचदश आदान अध्ययन प्रथम उद्देशक गाथांक दर्शनावरणीय के क्षय से त्रिकालज्ञ होना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001931
Book TitleJainagama Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1966
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_index
File Size9 MB
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