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श्रु० १, अ०१४, उ०१ गाथा ७ ८२
अभिमानी तपस्वी का तप निरर्थक है
ज्ञान का मद करने वाला अज्ञानी
सच्चा श्रमण शुद्ध आहार लेनेवाला एवं निरभिमानी होता है ११ दुर्गति से रक्षा रत्नत्रय की साधना से होती है, जाति कुल
से
नहीं
पूजा प्रतिष्ठा के इच्छुक अभिमानी श्रमण की भिक्षाचर्या केवल आजीविका एवं भवभ्रमण का हेतु
साधु
के लक्षण, मद करने वाला गुणी श्रमण भी सच्चा
सच्चे श्रमण नहीं
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१५-१६
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१६-२२
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गाथांक
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४-५
६
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ज्ञान-मदया लाभ-मद करने वाला निन्दक श्रमण बाल है, उसको समाधि प्राप्त नहीं होती
मद न करने वाला ही पंडित है एवं मोक्ष गामी है
शुद्ध आहार लेना
संयम में अरति और असंयम में रति का निषेध, भाषा विवेक और एकत्व भावना का उपदेश
उपदेश देने की पद्धति
हिंसा और माया के त्याग का उपदेश
सूत्रकृतांग-सूची
चतुर्दश ग्रंथ अध्ययन
प्रथम उद्देशक
अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, आज्ञापालन और अप्रमाद का उपदेश अविनयी शिष्य की दुर्गति-पक्षी शावक की उपमा गुरुकुल निवास का उपदेश
शब्दों में राग-द्वेष, निद्रा और चिकित्सा का निषेध
भूल स्वीकार न करके क्रोध करने वाला श्रमण मुक्त नहीं होता
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