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________________ आवश्यक नियुक्ति १२४. सेलघण-कुडग-चालणि', परिपूणग-हंस महिस-मेसे य। मसग-जलूग-विराली, जाहग गो भेरि आभीरी ॥ १२५. उद्देसे निद्देसे, य. निग्गमे खेत्त-काल-पुरिसे य। कारण पच्चय लक्खण, नए समोतारणाऽणुमए । १२६. किं कतिविहं कस्स कहिं, केसु कहं केच्चिरं हवति कालं। कति संतरमविरहितं, भवाऽऽगरिस फासणः निरुत्ती ॥ १२७. नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले समास उद्देसे। उद्देसुद्देसम्मि य, भावम्मि य होति अट्ठमओ ।। एमेव य निद्देसो, अट्ठविहो सो वि होइ नायव्वो। अविसेसियमुद्देसो, विसेसिओ' होति निद्देसो' ॥ १२९. दुविधं पि नेगमणयो, निद्दिटुं१ संगहो य ववहारो। निद्देसगमुज्जुसुतो, उभयसरित्थं२ च सदस्स'२ ॥ १३०. नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य। एसो उ निग्गमस्सा, निक्खेवो छव्विहो होति । १३१. पंथं किर देसित्ता, साधूणं अडविविप्पणट्ठाणं। सम्मत्तपढमलंभो, बोधव्वो वद्धमाणस्स५ ॥ १. चालिणि (बृभा)। २. आहरी (ला, म), नंदी १/गा. ४४, बृभा ३३४, स्वो १३४/१४५२, इस गाथा के बाद चूर्णि में 'खीरमिव रायहंसो' मात्र इतना ही गाथा का प्रतीक मिलता है। ३. X(रा, हा, दी)। 6. अनुद्वा ७१३/१, स्वो १३५/१४८२। .. किच्चरं (ला, रा)। ६. फोसण (रा, ला)। ७. अनुहा ७१३/२, स्वो १३६/१४८३, उद्देसे निद्देसे......(गा. १२५) एवं किं कइविहं....(गा. १२६) ये दोनों गाथाएं स्वो (७८/९६८, ७९/९६९) में नियुक्ति गाथा के रूप में आदृत हैं किन्तु चूर्णि एवं प्रायः सभी टीकाओं में ये गाथाएं इसी क्रम में मिलती हैं। विषयवस्तु की दृष्टि से भी ये यहीं संगत लगती हैं क्योंकि उपोद्घात नियुक्ति के रूप में ये दोनों गाथाएं प्रसिद्ध हैं। भाष्यकार ने दोनों स्थलों पर इन्हें नियुक्तिगाथा के क्रम में जोड़ा है। (द. टिप्पण. गा: ७५/३ का)। स्वो १३७ १४८५। - विदेसिओ(अ)। १० स्वो १३, १४९५. चूर्णि में इस गाथा का गाथा रूप में प्रतीक नहीं है पर व्याख्या प्राप्त है। ११. णिद्देसं (स, हा, दी)। १२. सरिच्छं (म, ब)। १३. स्वो १३९/१५०३। १४. स्वो १४०/१५३१ । १५.स्वो १४१/१५४७, यह गाथा चूर्णि एवं प्रायः सभी टीकाओं में नियुक्तिगाथा के क्रम में व्याख्यात है। किन्तु मलधारी हेमचन्द्र द्वारा व्याख्यात विशेषावश्यक भाष्य में यह निगा के रूप में सम्मत नहीं है। वहां पंथं किर.......(गा. १३१) से लेकर प्रथम गणधर से संबंधित तक की गाथाएं व्याख्यात एवं निर्दिष्ट नहीं हैं। टीकाकार ने उल्लेख किया है-'देसित्ता इत्यादिका सर्वापि निर्गमवक्तव्यता सूत्रसिदैव। यच्चेह दुःखगमं तद् मूलावश्यकविवरणादवगंतव्यं तावद् यावत् प्रथमगणधरवक्तव्यतायां भाष्यम्।' इस गाथा के बाद प्रायः सभी हस्तप्रतियों में अवरविदेहे (स्वो १५४८, को १५५३, हाटीमूभा. १) दाणण्ण (स्वो १५४९, को १५५४, हाटीमभा. २) ये दोनों गाथाएं प्रतियों में मूभा. व्या. अर्थात् मूल भाष्य एवं व्याख्यात उल्लेख के साथ मिलती हैं। किन्हीं-किन्हीं हस्तप्रतियों में केवल गाथाएं हैं, भा. व्या. का उल्लेख नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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