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________________ ३२ ७५/१. इत्थं पुण अहिगारो, सुतनाणेणं जतो सुतेणं तु । सेसाणमप्पणो वि य, अणुयोग पदीवदिट्ठतो ॥ पेढिया सम्मत्ता ५. सिद्धपह' (चू)। ६. स्वो ८० / १०२२ । ७. स्वो ८१ / १०५४ । ८. स्वो ८२ / १०५९ । ७५/२. उद्देसे निद्देसे, य निग्गमे खेत्त - काल - पुरिसे य । नए मोतारणाऽणु ॥ कारण-पच्चय-लक्खण, Jain Education International ७५/३. किं कतिविहं कस्स कहिं, केसु कहं केच्चिरं हवति कालं । कति संतरमविरहितं, भवारिस - फासणार - निरुत्ती ॥ अणुत्तरपरक्कमे सिद्धिपहपदेसए" महामुणि- महायसं तित्थगरमिमस्स ७६. ७७. ७८. तित्थगरे तिण्णे वंदामि भगवंते, सुगतिगतिगते, अमितनाणी । वंदे ॥ महाभागं, अमर-नर-राय-महितं, एक्कारस वि गणधरे, पवायए पवयणस्स सव्वं गणहरवंसं, वायगवंसं पवयणं महावीरं । तित्थस्स ॥ १. इस गाथा का चूर्णि में संकेत नहीं है किन्तु इसकी संक्षिप्त व्याख्या मिलती है । हरिभद्र ने इसके लिए “निर्युक्तिकारेणाभ्यधायि" तथा मलयगिरि ने “चाह निर्युक्तिकृद्" का उल्लेख किया है। विशेषावश्यक भाष्य में यह गाथा निगा के रूप में निर्दिष्ट नहीं हुई है अतः हमने इसे नियुक्ति गाथा के क्रम में नहीं जोड़ा है। ऐसा अधिक संभव लगता है कि उपसंहार रूप में इस गाथा की रचना बाद में की गई हो और वह नियुक्तिगाथा के रूप में प्रसिद्ध हो गई हो । २. स्वो ७८ / ९६८, अनुद्वा ७१३ / १ । ३. फोसण (महे) । For Private & Personal Use Only वंदामि । च' ॥ ४. स्वो ७९/९६९, अनुद्वा ७१३ / २, ७५/२, ३- ये दोनों गाथाएं उपोद्घातनिर्युक्ति के रूप में प्रसिद्ध हैं । स्वोपज्ञवृत्ति सहित भाष्य, कोट्याचार्य एवं मलधारीहेमचन्द्र वृत्ति सहित भाष्य में भी ये निगा के क्रमांक में हैं। किन्तु वहां टीकाकारों ने इसके निर्युक्तिगाथा होने की कोई सूचना नहीं दी है। ये दोनों गाथाएं मूल में अनुयोगद्वार की हैं। आवश्यकनियुक्ति की सभी टीकाओं में ये गाथाएं यहां नियुक्ति के क्रम में नहीं हैं। आगे हारिभद्रीय टीका (गा. १४०, १४१), मलयगिरि टीका (गा. १३७, १३८) तथा दीपिका में (गा. १४०, १४१ ) के क्रमांक में ये गाथाएं निर्युक्ति गाथा के क्रम में आई हैं। विशेषावश्यकभाष्य में भी पुन: इन्हीं गाथाओं का पुनरावर्तन निगा के क्रम में हुआ है। (स्वो १३५ / १४८२, १३६ / १४८३), (को १३५/ १४८७, १३६/१४८८) तथा (महे १४८४, १४८५ ) इन गाथाओं को यहां निगा के क्रम में नहीं जोड़ा है क्योंकि यहां ये प्रासंगिक प्रतीत नहीं होतीं । आगे गाथाओं के क्रम में जहां ये गाथाएं आई हैं, वहां आगे की गाथाओं में इनकी व्याख्या भी है तथा प्रासंगिक भी हैं । चूर्णि में यहां इन गाथाओं का कोई संकेत नहीं है। (देखें टिप्पण गा. १२६ का ) आवश्यक नियुक्ति www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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