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________________ आवश्यक नियुक्ति ४८१ नहीं जानते फिर भी सामान्य ज्ञान के आधार पर इतना बता सकते हैं कि आकाश में जितने तारे हैं, उतने ही तिल हैं।' आप किसी गणितज्ञ राजपुरुष द्वारा तिलों और तारों की संख्या करवा लीजिए। यह सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। १४५. बालुका राजा ने ग्रामवासियों को कहा कि तुम्हारे गांव में बालू सुलभ है अत: उसकी रस्सी बनाकर भेजो। रोहक के कथनानुसार गांव वालों ने राजा से कहा-'नट होने के कारण हम तो केवल नाचना जानते हैं, रस्सी बनाना नहीं जानते।' आप नमूने के तौर पर एक बालुका की रस्सी भेजें, जिसे देखकर हम दूसरी रस्सियां बनाकर भेज देंगे। रोहक की औत्पत्तिकी बुद्धि से समाधान प्राप्त कर राजा ने उन्हें आदेश से मुक्त कर दिया। १४६. हस्ती राजा ने एक बूढ़े, रोगग्रस्त और मरणासन्न हाथी को गांव में भेजकर लोगों से कहा-'हाथी की स्थिति से मुझे प्रतिदिन अवगत कराना पर उसकी मृत्यु की सूचना कभी मत देना। जो ऐसा नहीं करेगा, उसका निग्रह किया जाएगा।' सारे लोग चिन्ताग्रस्त हो गए। रोहक ने कहा-'चिंता की आवश्यकता नहीं है। समय पर जो होगा, वह देखा जाएगा।' एक दिन हाथी मर गया। लोगों ने भरत के पुत्र रोहक के अनुसार राजा के पास जाकर कहा- 'राजन् ! आज वह हाथी न उठता है, न बैठता है, न कुछ खाता है, न नीहार करता है, न उच्छास लेता है, न नि:श्वास लेता है और तो क्या वह कोई चेष्टा भी नहीं करता।' राजा ने पूछा-'तो क्या हाथी मर गया?' लोग बोले-'राजन् ! ऐसा तो आप ही कह सकते हैं।' १४७. कूप राजा ने अपने व्यक्तियों को भेजकर गांव वालों को आदेश दिया- 'तुम्हारे गांव में पीने योग्य मीठे जल का कूप है अतः उसे यहां ले आओ।' ग्रामवासी रोहक के पास एकत्रित हुए। उसने लोगों को एक युक्ति बता दी। ग्रामवासी राजा के पास जाकर बोले- 'स्वामिन् ! हमारे गांव का कूप जंगली है अत: किसी सजातीय सहायक के बिना एकाकी आने में असमर्थ है।' आप नगर के किसी कुंए को भेजने की कृपा करें, उसके साथ वह नगर में आ जाएगा। राजा ने पूछा-'यह उत्तर किसने दिया है ?' ग्रामवासियों ने कहा'भरत के पुत्र रोहक ने।' १. आवश्यक हारिभद्रीय टीका में 'तिलसमं तेल्लं दायव्वं ति तिला अदाएण मविया' पाठ का उल्लेख है। नंदी की हारिभद्रीय टीका में भी यही पाठ है। इससे कथा का स्पष्टीकरण नहीं होता अतः हमने नंदी से इस कथा को यहां लिया है। (नंदी पृ. २११, आवनि. ५८८/१३, आवचू. १ पृ. ५४५, हाटी. १ पृ. २७८, मटी. प. ५१७) २. आवनि. ५८८/१३, आवचू. १ पृ. ५४५, हाटी. १ पृ. २७८, मटी. प. ५१७। ३. आवनि. ५८८/१३, आवचू. १ पृ. ५४५, हाटी. १ पृ. २७८, मटी. प. ५१७, ५१८ । ४. आवनि. ५८८/१३, आवचू. १ पृ. ५४५, हाटी. १ पृ. २७८, मटी. प. ५१८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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