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परि. ३ : कथाएं
जब दासी गंधपुटिका लेने आई तब उसे वही गंधपुटिका देकर भेजा। देवी ने पत्र खोलकर पढ़ा और सोचा- 'धिक्कार है भोगों को।' उसने प्रतिलेख लिखा और उसी गंधपुटिका में बंद कर दिया। दासी उस पुटिका को लेकर तरुण के पास जाकर बोली- 'देवी ने कहा है कि गंध सुंदर नहीं है।' तरुण ने संतुष्ट होकर गंधपुटिका को खोला। पत्र में लिखा था
नेह लोके सुखं किञ्चिच्छादितस्यांहसा भृशम् । मितं च जीवितं नृणां तेन धर्मे मतिं कुरु ॥
पाद के प्रथम अक्षर से भावार्थ निकलता था 'नेच्छामि' अर्थात् मैं तुम्हें नहीं चाहती हूं। पत्र को पढ़कर युवक विषण्ण हो गया । वह दुःखी होकर अपने कपड़े फाड़ने लगा। उसने सोचा- 'जब तक यह देवी प्राप्त न हो जाए, तब तक मैं जीवित कैसे रह सकता हूं?" वह वहां से चला और घूमता- घूमता दूसरे राज्य में चला गया। वहां वह सिद्धपुत्रों के आश्रम में रहा । वहां नीति की व्याख्या की जा रही थी । ' न शक्यं त्वरमाणेन प्राप्तुमर्थान् सुदुर्लभान् । भार्यां च रूपसपन्नां, शत्रूणां च पराजयम् ॥'
इसकी व्याख्या करते हुए सिद्धपुत्रों ने यह कथानक सुनाया । बसंतपुर नगर में जिनदत्त नामक सार्थवाहपुत्र रहता था । वह श्रमणों का उपासक था। चंपा नगरी में धन नाम का सार्थवाह रहता था । वह परम ऋद्धिशाली था। उसके पास दो आश्चर्य थे-चार समुद्रों की सारभूत मुक्तावली और हारप्रभा नाम की पुत्री । जिनदत्त ने यह बात सुनी। उसने सार्थवाह से हारप्रभा पुत्री की मांग की। धन सार्थवाह ने पुत्री को देने से इन्कार कर दिया। तब जिनदत्त ने ब्राह्मण का वेष बनाया और अकेला चंपा नगरी में गया। उस समय वहां पूजाकाल चल रहा था। वह एक अध्यापक के पास गया। पूछने पर कहा - 'मैं पढ़ने के लिए आया हूं।' अध्यापक बोला- 'मेरे पास भोजन की व्यवस्था नहीं है। वह अन्यत्र कहीं प्राप्त कर लेना । धन सार्थवाह सरजस्कों को भोजन देता है।' वह धन के पास गया और बोला- 'जब तक मैं विद्या- ग्रहण करूं, तब तक आप मेरे लिए भोजन की व्यवस्था करें।' धन ने स्वीकार कर लिया। उसने अपनी पुत्री हारप्रभा को बुलाकर कहा- 'इसको भोजन दे देना ।' जिनदत्त ने सोचा- 'बहुत अच्छा हुआ ।' चूहे ने बिडाल को मार डाला । अब वह हारप्रभा को फल आदि भेंट देने लगा। वह भेंट स्वीकार नहीं करती। जिनदत्त नियतिवादी था । वह अवसर- अवसर पर हारप्रभा को भेंट देने लगा। सरजस्कों ने उसकी भर्त्सना की ।
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कुछ समय के पश्चात् उसने हारप्रभा को प्रसन्न कर लिया और वह उसमें आसक्त हो गई। उसने कहा - 'हम यहां से पलायन कर जायें।' जिनदत्त बोला- 'यह उचित नहीं होगा, तुम विश्वस्त रहो । जल्दीबाजी में कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता । तुम पागल होने का बहाना बनाओ ओर जो वैद्य उपचार करने आएं उन्हें बुरा-भला कहो ।' उसने वैसे ही किया । वैद्यों ने उपचार करने से इन्कार कर दिया। पिता उदास हो गया। विप्र बना हुआ जिनदत्त बोला- 'यह विद्या मुझे परंपरा से प्राप्त है किन्तु इसको करना दुष्कर है। ' धन सार्थवाह ने कहा— ‘मैं व्यवस्था कर दूंगा।' विप्र बोला- 'मैं करता हूं।' जिनदत्त बोला- 'जो लोग आएं, वे सारे ब्रह्मचारी होने चाहिए।' सेठ बोला- 'यहां सरजस्क रहते हैं' मैं उन्हें ले आऊंगा । विप्र बोला- यदि किसी प्रकार से कोई भी अब्रह्मचारी होंगे तो कार्य सिद्ध नहीं होगा। वे परिताप देंगे। धन
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