SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 530
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आवश्यक नियुक्ति ४६९ लोग नगर-देवता को प्रणाम कर घर लौटने लगे। प्रभात का समय था। पुष्पशाल गांधर्विक भी गाने से परिश्रान्त हो गया था अतः वहीं सो गया। सार्थवाही भद्रा दासियों के साथ वहां आई। वह देवता को प्रणाम कर मंदिर की परिक्रमा करने लगी। दासी ने बताया- 'यही वह गायक है।' वह संभ्रान्त होकर उसके पास गई। देखा कि वह कुरूप और दंतुर है। वह बोली-'देख लिया, इसके रूप से ही इसका गायन जान लिया।' घृणा से उसने उस पर थूक दिया। गायक की नींद टूटी। विदूषकों ने उससे सारी बात कही। वह मन ही मन क्रोध से उबल पड़ा। दूसरे दिन गायक भद्रा के घर के बाहर प्रात:काल प्रोषितपतिका द्वारा बनाया गया गीत गाने लगा। कैसे वह पूछता है, कैसे चिन्तन करता है, कैसे पत्र लिखता है, कैसे आकर घर में प्रवेश करता है आदि। भद्रा ने सोचा-‘पति पास में ही है, मैं जाऊं और उनका स्वागत करूं।' वह उठी और असावधानी के कारण ऊपर से नीचे गिरकर मर गई। जब उसके पति ने सुना कि इस गायक ने मेरी पत्नी को मारा है तो एक दिन उसने उसको बुलाया। उसने गायक को पेट भरकर विशिष्ट भोजन करवाया। भोजन के बाद सार्थवाह ने गायक से गाते हुए ऊपर चढ़ने को कहा। उसने गाना प्रारंभ किया। ऊर्ध्व श्वास से उसका सिर फूट गया और वह मर गया। १३०. चक्षु इन्द्रिय के प्रति आसक्ति मथुरा नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम धारिणी था। वह स्वभावत: धर्मपरायणा थी। वहां एक भंडीरवन' नामक चैत्य था। एक दिन उसकी यात्रा के लिए अपनी रानियों के साथ राजा तथा नगरजन सज-धज कर निकले। एक वाहन में एक वणिकपुत्र ने यवनिका से बाहर निकले नुपूर सहित रानी के पैरों को देखा। उसके पैरों में अलक्तक लगा हुआ था। युवक ने सोचा कि जिस स्त्री के चरण इतने सुन्दर हैं, वह अवश्य ही स्वर्ग की अप्सरा से भी अधिक सुन्दर होगी। वह उसमें आसक्त हो गया। उसने पूछताछ कर जान लिया कि वह कौन है? उसने उसके घर के पास दुकान खरीद ली और उसकी दासियों से परिचय किया। उन्हें दुगुना धन देकर वह यह दर्शाने लगा कि वह स्वयं महामनुष्य है। वे दासियां उससे प्रभावित हो गईं। उन्होंने रानी से भी कहा कि इस रूप वाला एक वणिकपुत्र है। अब वे दासियां इस धनिक वणिक के यहां से पदार्थ खरीदने लगीं। देवी भी वहीं से गंध आदि द्रव्य मंगाती थी। एक बार उस युवक ने दासी से पूछा-'कौन इन मूल्यवान् गंध-द्रव्यों का प्रयोग करती है ?' दासी बोली'मेरी स्वामिनी।' तब उस तरुण ने भूर्जपत्र पर कुछ लिखकर एक गंध-पुटिका में रख दिया। उसने लिखा काले प्रसुप्तस्य जनार्दनस्य, मेघान्धकारासु च शर्वरीषु। मिथ्या न भाषामि विशालनेत्रे!, ते प्रत्यया ये प्रथमाक्षरेषु । कालोऽयमानंदकर: शिखीनां, मेघान्धकारश्च दिशि प्रवृत्तः। मिथ्या न वक्ष्यामि विशालनेत्रे !, ते प्रत्यया ये प्रथमाक्षरेषु॥ इन दो श्लोको के चारों चरणों के प्रथम अक्षरों 'कामेमि ते' मैं तुमको चाहता हूं, लिखकर अपनी भावना व्यक्त की। १. आवनि. ५८३, आवचू. १ पृ. ५२९, ५३०, हाटी. १ पृ. २६५, २६६, मटी. प. ५०४, ५०५ । २. चूर्णि में भंडीरवतंसक नाम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy