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________________ आवश्यक निर्युक्त ४४१ भी दे दिया। फिर सोचा, यदि इसी पात्र में अन्य अम्ल आदि द्रव्य लिए जायेंगे तो यह बिगड़ जाएगी अतः उसने शेष खीर भी दे दी। तब उसने द्रव्यशुद्ध, दायकशुद्ध और ग्राहकशुद्ध - इस शुद्ध दान से देव- आयुष्य का बंध किया। मां ने आकर थाली को खाली देखा तो उसने सोचा- 'बच्चे ने सारी खीर खा ली है।' मां ने पुनः खीर परोसी । उस बालक ने थोड़ी मात्रा में अपना पेट भरा। रात्रि में विसूचिका से मरकर वह देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहां से च्युत होकर वह राजगृह नगर में प्रधान सेठ धनावह की भार्या भद्रा के गर्भ से पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। जब वह गर्भ में था तब लोग कहते - 'जो गर्भ में आया है, वह कृतपुण्य है।' जब मां ने पुत्र का प्रसव किया तब उसका नाम ' कृतपुण्य' रखा। वह बड़ा होने लगा। उसने अनेक कलाएं सीखीं। युवा होने पर उसका विवाह हुआ । माता ने उसे दुर्ललित गोष्ठी के सदस्यों के साथ रखा। उन्होंने उसे गणिकागृह में प्रविष्ट करा दिया। बारह वर्षों तक वह वहां रहा । पूरा कुल निर्धन हो गया। फिर भी वह गणिका के घर से नहीं निकला। उसके माता-पिता मर गए। अंतिम दिन उसकी भार्या ने अपने आभूषण वेश्या के घर भेजे। गणिका की माता ने जान लिया कि अब यह निःस्सार हो गया है। तब वे आभूषण तथा सहस्र मुद्राएं लौटा दीं। गणिका की माता ने कहा - ' इसे घर से निकाल दो।' वेश्या की पुत्री ऐसा नहीं चाहती थी। तब उसे चोरी के आरोप से वहां से निकाल कर घर भेजना चाहा। वह घर के बाहर बैठ गया । तब दासी ने कहा- 'घर से निकाल देने पर भी अभी यहीं बैठे हो ?' तब वह अपने जीर्ण-शीर्ण घर पर आया, भार्या ससंभ्रम उठी। कृतपुण्य ने पत्नी को सारी बात बताई और शोकग्रस्त होकर पत्नी से पूछा- 'घर कुछ है ?' उसने कहा- 'दूसरों से मांग कर काम चला रही हूं।' तब उसने गणिका की माता द्वारा लौटाए गए आभरण तथा सहस्र मुद्राएं उसे दिखाईं। उसी दिन एक सार्थ किसी गांव की ओर प्रस्थित होने वाला था । कृतपुण्य भांडमूल्य लेकर उसके साथ प्रस्थित हो गया। मार्ग में वह एक देवालय के बाहर खाट बिछाकर सो गया। वहीं एक वणिक् की माता ने सुना कि उसका पुत्र नौका के टूट जाने पर मर गया तब उसने उस व्यक्ति को धन देते हुए कहा'भाई! यह बात किसी को मत बताना।' माता ने सोचा - 'मुझे पुत्र रहित समझकर राजा मेरा सारा धन न ले ले, यह सोचकर वह रात्रि में उस सार्थ के पास आई। वह किसी अनाथ की खोज में थी। उसने मंदिर बाहर खाट पर सोए कृतपुण्य को देखा, उसे समझाकर वह घर ले गई। घर पहुंच कर वह रोने लगी । पुत्रवधुएं एकत्रित हुईं। वृद्धा ने कहा- 'अनेक दिनों से खोया हुआ मेरा बेटा मुझे मिला है। चिरकाल से यह घर से चला गया था। यह तुम्हारा देवर है। आज यह यहां आया है।' चारों उसके साथ लग गईं। वह बारह वर्ष तक वहां रहा। चारों के चार पुत्र हुए। बूढ़ी सास ने कहा- 'अब इसे घर से निकाल दो। वे उसका जाना सहन नहीं कर पा रही थीं। उन चारों ने उसके लिए पाथेय रूप में मोदक बनाए और उनमें एक-एक रत्न रख दिया, जिससे कि वे उसके जीवन-निर्वाह में काम आ सकें। उसे मदिरा पिलाई और उसी मंदिर के बाहर खाट पर लिटाकर सिरहाने वह पाथेय रखकर वे चारों लौट आईं। प्रभात हुआ। शीतल पवन के झोकों से वह जागा । अकस्मात् वह सार्थ भी उसी दिन वहां आया। उसकी मूल भार्या ने उसकी खोज करने एक आदमी भेजा । वह उसके साथ घर आया । भार्या ने ससंभ्रम उठ कर पाथेय की थैली अपने हाथ में ले ली। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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