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________________ ४३८ परि. ३ : कथाएं साथ बिताती । प्रात: उसी विधि से अपने प्रासाद में चली जाती । इस प्रकार समय बीतता गया। एक बार रानी विलंब से पहुंची। महावत ने हाथी की सांकल से उसे पीटा। वह बोली- 'वहां एक अन्तःपुर पालक है। वह रात भर सोता ही नहीं। तुम मेरे ऊपर क्रोध मत करो।' एक बार अन्तःपुर पालक ने रानी को आते-जाते देख लिया। उसने सोचा- 'यदि ये भी ऐसी हैं तो जो सामान्य स्त्रियां हैं, उनका तो कहना ही क्या?' वह सो गया। प्रभात हुआ। सभी लोग जाग गए। वह नहीं जागा। राजा ने कहा- 'इसे सोने दो।' वह सातवें दिन उठा। राजा के पूछने पर उसने कहा- 'एक रानी मैं नहीं जानता कौन है, वह प्रतिरात्रि हाथी की सूंड के सहारे बाहर जाती है। तब राजा ने एक मिट्टी का हाथी बनवाया और अन्तःपुर की सभी रानियों को आज्ञा दी कि इस हाथी की पूजा कर, सभी इसके ऊपर चढ़कर नीचे उतरे। सभी रानियों ने वैसा ही किया परन्तु उस रानी ने कहा- 'मुझे हाथी पर चढ़ने-उतरने में भय लगता है।' तब राजा ने उसे कमलनाल से आहत किया। वह उस प्रहार से मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। राजा ने जान लिया कि यही अपराधिनी है। राजा बोला- 'हे मदोन्मत्त हाथी पर आरोहण करने वाली! तू इस मिट्टी के हाथी पर चढ़ने से डर रही है। तू कमलनाल से आहत होने पर मूर्च्छित हो गई और गजसांकल से आहत होने पर भी मूर्च्छित नहीं हुई।' राजा ने उसकी पीठ पर सांकल से प्रहार के चिह्न देखे। तब राजा ने महावत तथा उस रानी को हाथी पर बिठाकर छिन्न मेखला वाले पर्वत पर भेज दिया। राजा ने महावत से कहा- 'तुम तीनों उस पर्वत से नीचे गिर जाना।' हाथी के दोनों पाश्र्यों में दो सैनिक हाथों में भाला लिए हुए खड़े थे। हाथी का एक पैर बांधकर ऊंचा कर दिया। लोगों ने कहा- 'बेचारे इस पशु की क्या गलती है ? महावत और रानी को मारा जाए।' तब भी राजा का रोष शान्त नहीं हुआ। दूसरी बार हाथी के दोनों पैर ऊपर कर दिए और तीसरी बार तीनों पैर। अब हाथी एक पैर पर खड़ा था। लोगों ने आक्रन्दन करते हुए कहा- 'अरे! इस हस्तिरत्न को क्यों मार रहे हो?' राजा का मन पिघला। उसने कहा- 'क्या कोई इसे निवर्तित कर सकता है?' एक व्यक्ति बोला- 'यदि अभय दें तो।' राजा ने अभय दे दिया। उसने अंकुश से उसे निवर्तित कर, कुछ घुमाकर एक स्थान पर खड़ा कर दिया। महावत और रानी को हाथी से नीचे उतार कर दोनों को देश से निकाल दिया। महावत और रानी-दोनों एक प्रत्यंत गांव में गए और एक शून्यगृह में ठहरे। गांव में चोरी कर एक चोर वहां आकर ठहरा। रानी महावत से बोली- 'हम दोनों एक दूसरे से वेष्टित होकर बैठें, जिससे यहां कोई दूसरा प्रवेश न कर सके।' प्रभात होने पर यहां से चलेंगे। चोर भी इधर-उधर लुढ़कता हुआ रानी से छू गया। रानी ने स्पर्श का वेदन किया। स्पृष्ट होने पर वह बोली-'कौन हो तुम?' वह बोला- 'मैं चोर हूं।' वह बोली-'तुम मेरे पति हो जाओ और तब हम इस (महावत) को चोर बता देंगे।' । प्रभात हुआ। गांव वालों ने महावत को चोर समझकर पकड़ लिया। उसे शूली पर चढ़ाकर मार डाला। वह रानी चोर के साथ चली जा रही थी। मार्ग में एक नदी आई। चोर ने उससे कहा- 'तुम यहां ठहरो। मैं वस्त्र और आभूषणों को लेकर नदी के उस पार रखकर लौट आऊंगा।' चोर वस्त्र और आभूषण लेकर नदी में उतरा और वहां से चला। रानी बोली-'यह नदी परिपूर्ण है। गहरे पानी वाली है। मेरी सारी वस्तुएं तुम्हारे हाथ में हैं। जैसे तुम नदी के पार जाना चाहते हो, क्या वैसे ही मेरा सारा भांड ले जाना चाहते हो?' वह चोर नदी के पानी में रुक कर बोला- 'बाले ! जो चिर-परिचित था उसे छोड़कर तुम अपरिचित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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