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परि. ३ : कथाएं के झुरमुट में फेंक दिया। अत्राण होकर उसने भगवान् को बुलाया। सिद्धार्थ बोला- 'यह तुम्हारी स्वकृत कुचेष्टा का परिणाम है।' भगवान् आगे जाकर रुके। लोगों ने सोचा- 'यह भगवान् का सेवक अथवा छत्रधर है, इसलिए भगवान् यहां ठहरे हैं। यह सोचकर लोगों ने गोशालक को मुक्त कर दिया।'
वहां से भगवान् गोभूमि की ओर चले। वहां सदा गायें चरने आती थीं इसलिए उसका नाम गोभूमि पड़ा। बीच में एक सघन अटवी थी। गोशालक ने वहां ग्वालों से पूछा-'अरे वज्रलाढो! यह मार्ग किस गांव की ओर जाता है।' तब ग्वाले बोले- रोषपूर्वक अटसंट क्यों बोल रहे हो?' तब गोशालक बोला'अरे अपितृपुत्रो! अरे क्षौरपुत्रो! मैं ठीक ही कह रहा हूं।' तब ग्वालों ने मिलकर उसे पीटा और बांधकर बांस के झुरमुट में फेंक दिया। भगवान् के उपशम को देखकर लोगों ने उसे छोड़ दिया।
भगवान् ने राजगृह में आठवां वर्षावास किया। विचित्र अभिग्रहों से संयुक्त चातुर्मासिक तपस्या का पारणक बाहिरिका में संपन्न कर भगवान् ने शरदऋत में अपनी मति से एक दृष्टान्त कहा- “एक कौटुम्बिक के खेत में प्रचुर शालि धान हुआ।' तब वह पथिकों को कहता-तुम इस धान की कटाई करो मैं तुम्हें मन-इच्छित भोजन दूंगा। इस प्रकार उपाय से उसने धान के फसल की कटाई करा दी। उस कौटुम्बिक की भांति मेरे भी बहुत कर्म अवशिष्ट हैं। इनको भी काटकर निर्जरा करनी है। इसी उद्देश्य से भगवान् अनार्य देश की लाट भूमि और वज्रभूमि में गए। वहां के अनार्य लोगों ने उनकी निंदा और अवहेलना की। वहां नौवां वर्षावास बिताया। स्थान न मिलने से वह वर्षावास अस्थिर था। वहां छह महीने तक भगवान् ने अनित्य जागरिका की साधना की।
वहां से प्रथम शरदऋतु में भगवान् सिद्धार्थपुर गए। वहां से कूर्मग्राम की ओर प्रस्थित हुए। मार्ग में एक तिलस्तंब को देखकर गोशालक ने पूछा-'भगवन्! यह तिलस्तंब निष्पन्न होगा या नहीं? भगवान् बोले- 'यह निष्पन्न होगा। इस तिलस्तंब में सात तिल के जीव आकर तिल की फली में उत्पन्न होंगे।' गोशालक को इस बात पर श्रद्धा नहीं हुई। उसने तिलस्तंब के पास जाकर उसको जड़ सहित उखाड़ कर एक ओर फेंक दिया। सन्निहित व्यंतर देवों ने सोचा-'भगवान् का वचन मिथ्या न हो इसलिए उन्होंने वर्षा की।' काली गाय उस ओर आई और उसके खुर से वह उत्पाटित तिलस्तंब भूमि में गड़ गया। कालान्तर में वह अंकुरित होकर पुष्पित हो गया। ७३. बालतपस्वी वैश्यायन
___ चंपा और राजगृह नगरी के मध्य में गोब्बर ग्राम में एक गोशंखी कौटुम्बिक रहता था। वह आभीरों का अधिपति था। उसकी भार्या का नाम बंधुमती था। वह वन्ध्या थी। उस गांव के निकटवर्ती गांव को चोरों ने लूट लिया। वे लोगों को मारकर तथा बंदी बनाकर भाग गए। एक नवप्रसूता स्त्री को सद्यःजात बालक के साथ पकड़ा। उसके पति को चोरों ने मार दिया था। दुःखी होकर उस स्त्री ने सद्य:जात बालक को जंगल में छोड़ दिया। उस बालक को गोशंखी आभीर ने देखा । ग्वालों के चले जाने पर उसने वह बालक उठाया और अपनी पत्नी को दे दिया। लोगों में यह बात प्रचारित कर दी कि मेरी पत्नी के गूढ गर्भ था। गोशंखी
१. आवनि. ३०३-३०६, आवचू. १ पृ. २९३-२९७, हाटी. १ पृ. १३९-१४२, मटी. प. २८३-२८६ ।
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