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________________ आवश्यक निर्युक्ति ३८९ भगवान् लाट देश में गए। उनका लक्ष्य था - अत्यधिक कर्म-निर्जरा करना । वहां अवहेलना, निंदा आदि को सहनकर बहुत कर्मों की निर्जरा की । पूर्णकलश नाम का अनार्य गांव था। वहां के दो चोर लाट देश में जाना चाहते थे। भगवान् को अपशकुन मानकर वे तलवार से शिरच्छेद करने के लिए भगवान् की ओर दौड़े। शक्र ने अवधिज्ञान से जाना । वज्र फेंककर उसने दोनों चोरों को मार डाला । विहरण करते हुए भगवान् भद्रिका नगरी में आए। वहां पांचवां वर्षावास बिताया और चातुर्मासिक तपस्या स्वीकार की । विचित्र तप: कर्म और कायोत्सर्ग-प्रतिमा आदि की साधना की। चातुर्मासिक तप का पारणा बाहिरिका में संपन्न कर वहां से भगवान् कदलीसमागम नगर में गए। वहां शरद्काल में 'लावकभक्त दध्यन्न के साथ दिया जाता था । गोशालक बोला- 'वहां चलें ।' सिद्धार्थ बोला- 'आज हमारे तपोनुष्ठान है।' गोशालक वहां गया और दध्यन्न का भोजन करने लगा। वह तृप्त नहीं हुआ। तब लोगों ने कहा- ' - 'बड़े भाजन में दध्यन्न तैयार करो। वैसा ही किया गया।' फिर गोशालक ने उसे नहीं लिया तब लोगों ने वह दध्यन्न उसके ऊपर फेंक दिया। वह उनसे रुष्ट होकर चला गया। भगवान् तंबाक गांव में गए। वहां पार्वापत्यीय बहुश्रुत स्थविर आचार्य नंदिसेन अपने शिष्यों के साथ आए थे। वे जिनकल्प की साधना कर रहे थे । भगवान् भी वहीं प्रतिमा में स्थित हो गए। गोशालक नंदिषेण के पास गया। पूर्ववत् उनकी अवहेलना - निन्दा की। उस दिन आचार्य नंदिषेण एक चौराहे पर प्रतिमा में स्थित थे। वहां आरक्षकपुत्र आया और चोर समझ कर उन पर भाले से प्रहार किया। नंदिषेण को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। (शेष कथा मुनिचंद्र आचार्य के समान है ।) भगवान् कूपिक सन्निवेश में गए। वहां के आरक्षकों ने उन्हें गुप्तचर समझ कर पकड़ा और बांधकर पीटा। लोगों में यह प्रवाद फैल गया कि देवार्य को गुप्तचर समझ कर पकड़ लिया है। वहां पार्श्व - परंपरा की दो परिव्राजिकाएं विजया और प्रगल्भा रहती थीं। उन्होंने यह प्रवाद सुना और सोचा- 'चरम तीर्थंकर प्रव्रजित हो गए हैं, हम चलें और उन्हें देखें। कौन जाने, वे ही हों।' वहां जाकर परिव्राजिकाओं ने उन सैनिकों से कहा - 'दुरात्माओ ! तुम नहीं जानते। ये अंतिम तीर्थंकर हैं । महाराज सिद्धार्थ के पुत्र हैं । इंद्र कुपित होकर तुम्हें उपालंभ देगा।' उन्होंने भगवान् को मुक्त कर क्षमायाचना की । वहां से आगे जाने के दो रास्ते थे । गोशालक ने भगवान् से कहा- 'मैं आपके साथ नहीं चलूंगा। आप मेरा पीटने वालों से निवारण नहीं करते। एक बात और है। आप के साथ चलने से अनेक उपसर्ग सहन करने पड़ते हैं और मैं ही पहले पीटा जाता हूं अतः अब मैं अकेला विहार करूंगा | सिद्धार्थ बोला- 'जैसी तुम्हारी इच्छा ।' भगवान् वैशाली की ओर प्रस्थित हुए। गोशालक भगवान् से पृथक् होकर दूसरी ओर चला । वह पथ आगे जाकर रुक गया। वहां एक चोर वृक्ष की ओट में खड़ा रहकर उसे देख रहा था। उसने देखा'एक नग्न श्रमणक आ रहा है।' चोरों ने कहा- - इसके पास कुछ भी नहीं है । यह भयभीत भी नहीं है। इसका कोई साथी नहीं है, जो हमें पराजित कर सके। पांच सौ चोर उसे पागल समझकर मारने लगे। तब गोशालक ने सोचा- 'भगवान् के साथ रहना ही अच्छा है। साथ रहने से जो भगवान् को मुक्त करता है, वह मुझे भी मुक्त कर देगा। अब वह भगवान् की खोज करने लगा । १. आवनि २८७-३००, आवचू. १ पृ. २८२-२९२, हाटी. १ पृ. १३३-१३९, मटी. प. २७६-२८२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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