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________________ ३८८ परि. ३ : कथाएं वहां से भगवान् हरिद्राक गांव में गए। वहां विशाल हरिद्रक वृक्ष था। श्रावस्ती नगरी में प्रवेश करते अथवा निर्गमन करते समय सार्थवाह उस वृक्ष के नीचे रुकते थे। भगवान् उसी वृक्ष के नीचे प्रतिमा में स्थित हो गए। शीतकाल का समय था। एक सार्थ आया और उसने रात में वहां अग्नि जलाई। प्रभात में सार्थ वहां से चला गया। अग्नि बझाई नहीं अतः जलती हई अग्नि भगवान के निकट आ गई, जिससे भगवान को परिताप हुआ। गोशालक बोला-'भंते! यहां से भागो। अग्नि इधर ही बढ़ रही है।' भगवान के पैर जल गए। गोशालक वहां से भाग गया। वहां से भगवान् नंगला गांव में गए और वासुदेव के मंदिरगृह में प्रतिमा में स्थित हो गए। वहां कुछ बालक खेल रहे थे। गोशालक आंखें निकालकर बालकों को डराने लगा। भय से बालक दौड़ने लगे। उनमें कुछ नीचे गिर पड़े। उनके घुटने घायल हो गए। कुछेक के गुल्फ टूट गए। उन बालकों के माता-पिता वहां आए और गोशालक को पीटने लगे। उन्होंने भगवान् से कहा- 'यह आपका दास स्थान पर नहीं बैठता, कुचेष्टाएं करता रहता है। कुछ लोगों ने कहा-'इसे क्षमा कर देना चाहिए।' फिर गोशालक भगवान् के पास आकर बोला- 'मैं पीटा जाता हूं, आप निवारण नहीं करते।' सिद्धार्थ ने कहा- 'तुम स्थान पर स्थिरता से नहीं बैठते अतः अकेले पीटे जाओगे।' __ भगवान् आवर्त्त नामक गांव में गए। वहां बलदेव के मंदिरगृह में प्रतिमा में स्थित हो गए। वहां भी गोशालक बच्चों को मुखविकारों के द्वारा डराने लगा। बच्चों को उसने पीटा। वे रोते-रोते माता-पिता के पास गए और अपनी बात कही। माता-पिता ने वहां आकर गोशालक की पिटाई की। 'यह पागल है', यह सोचकर उन्होंने उसे छोड़ दिया। लोगों ने सोचा-'इसको पीटने से क्या प्रयोजन? हम इसके स्वामी को मारें, जो इसको बरी हरकतों से निवारित नहीं करते।' वे भगवान को मारने के लिए उठे। इतने में ही बलदेव की प्रतिमा हल को भुजा पर रख कर उठी। वे सभी लोग भयभीत होकर भगवान् के चरणों में गिरे और क्षमायाचना कर घर चले गए। । भगवान् चोराक नामक सन्निवेश में गए। वहां सामूहिक भोज पक रहा था। वहां भगवान् प्रतिमा में स्थित हो गए। गोशालक बोला-- 'आज यहां से चलना है।' सिद्धार्थ ने कहा- 'आज हम यहीं रहेंगे।' गोशालक वहां ऊंचा-नीचा होकर देखने लगा कि भिक्षा के लिए देश-काल हआ या नहीं? वहां चोरों का भय था। वहां के लोगों ने सोचा- 'यह बार-बार इधर-उधर देख रहा है अतः चोर होना चाहिए।' लोगों ने उसे पीटकर बाहर निकाल दिया। भगवान् भीतर थे। गोशालक ने कहा-'मेरे धर्माचार्य का यदि तपः प्रभाव हो तो वह मंडप जल जाए। उसके कहते ही मंडप जल गया।' वहां से भगवान् कलंबुका सन्निवेश में गए। वह सीमान्तवर्ती गांव था। मेघ और कालहस्ती वहां के शासक थे। दोनों भाई थे। एक बार कालहस्ती कुछ चोरों को साथ ले चोरी करने निकला। गोशालक और भगवान् आगे चल रहे थे। कालहस्ती ने पूछा- 'तुम कौन हो?' भगवान् मौन थे। तब उन्होंने उनको पीटा। फिर भी वे कुछ नहीं बोले। तब उन दोनों को बांधकर वे बड़े भाई मेघ के पास ले गए। उसने ज्योंही भगवान् को देखा, वह आसन से उठा, भगवान् की पूजा कर उन्हें बंधन-मुक्त किया। मेघ ने भगवान् को पहले कुंडग्राम में देखा था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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