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आवश्यक नियुक्ति विशेषावश्यक भाष्य
आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने सामायिक आवश्यक पर भाष्य लिखा, जो विशेषावश्यक के नाम से प्रसिद्ध है। इसे सामायिक भाष्य भी कहते हैं। यह ग्रंथ विशेष रूप से आवश्यक नियुक्ति के अन्तर्गत सामायिक नियुक्ति की व्याख्या के रूप में लिखा गया है। तर्क को सुरक्षित रखते हुए भी जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने आगमिक परम्परा को सुरक्षित रखा इसलिए ये आगमवादी आचार्य कहलाते हैं। सैद्धान्तिक एवं तात्त्विक दृष्टि से यह ज्ञान का आकर ग्रंथ है। इसे दार्शनिक चर्चा का प्रथम एवं उत्कृष्ट कोटि का ग्रंथ कहा जा सकता है। ज्ञान के वर्णन में अनेक मतान्तरों का उल्लेख भी भाष्यकार ने किया है। परवर्ती आचार्यों की रचना पर सर्वाधिक प्रभाव इस ग्रंथ का पड़ा है। इसमें आगम में वर्णित लगभग सभी महत्त्वपूर्ण विषयों का वर्णन है। आचार्य तुलसी ने इस ग्रंथ के माहात्म्य को काव्यात्मक शैली में प्रकट किया है
आगम का वह कौन सा, सुविशद व्याख्या ग्रंथ।
क्षमाश्रमण जिनभद्र का, जो न बना रोमन्थ॥ इस ग्रंथ के अनेक ऐसे प्रकरण हैं, जो स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में हैं, जैसे-पंच ज्ञान, गणधरवाद, पंच नमस्कार आदि। भाष्यकार ने अत्यंत कुशलता से अन्य अनेक विषयों की चर्चा भी इसमें की है। पंडित मालवणियाजी के अनुसार जैन परिभाषाओं को स्थिर रूप प्रदान करने में इस ग्रंथ को जो श्रेय प्राप्त है, वह शायद ही अन्य अनेक ग्रंथों को एक साथ मिलाकर मिल सके।
इस ग्रंथ पर तीन टीकाएं मिलती हैं-१. स्वोपज्ञ टीका', २. कोट्याचार्य कृत टीका, ३. मलधारी हेमचन्द्र कृत टीका। मालवणियाजी द्वारा संपादित स्वोपज्ञ एवं कोट्यार्य वाली टीका में कुल ४३२९ गाथाओं की व्याख्या है, जिनमें ७३५ नियुक्तिगाथाएं हैं। मलधारी हेमचन्द्र कृत टीका वाले विशेषावश्यक भाष्य में ३६०३ गाथाएं हैं, इसमें नियुक्ति के क्रमांक अलग से लगाए हुए नहीं हैं। इस ग्रंथ में लगभग ३६०० गाथाएं हैं। इस ग्रंथ के बारे में आश्चर्य का विषय यह है कि इसकी तीनों टीकाओं में गाथा-संख्या में काफी अंतर है। ऐसा संभव लगता है कि टीकाकार ने जिस गाथा की व्याख्या नहीं की, उसका उल्लेख भी नहीं किया इस कारण गाथा-संख्या में अंतर आ गया।
डॉ. मोहनलाल मेहता विशेषावश्यक भाष्य को आचार्य जिनभद्र की अंतिम कृति मानते हैं क्योंकि इस पर लिखी स्वोपज्ञ टीका उनके दिवंगत होने के कारण अधूरी रही। लेकिन इस संदर्भ में हमारा चिंतन है कि विशेषावश्यक भाष्य की रचना के बाद भी उन्होंने कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रंथ अवश्य लिखे होंगे। शिष्यों ने जब विशेषावश्यक भाष्य का अध्ययन किया तब उन्हें यह अत्यंत गरिष्ठ और प्रौढ ग्रंथ लगा अतः उन्होंने आचार्य जिनभद्रगणि से इसकी टीका लिखने का निवेदन किया। शिष्यों के निवेदन पर उन्होंने स्वोपज्ञ टीका लिखनी प्रारंभ की लेकिन बीच में ही दिवंगत होने के कारण वह अधूरी रह गई। स्वोपज्ञ टीका
आगम अथवा व्याख्या साहित्य पर सबसे प्राचीन संस्कृत टीका जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा
१. गणधरवाद, भूमिका पृ. ३५। २. यह अधूरी है, इस टीका को कोट्यार्य ने पूरा किया है।
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