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________________ ३८३ आवश्यक नियुक्ति ६७. कंबल-संबल देव की उत्पत्ति मथुरा नगरी में जिनदास वणिक् श्रावक था। उसकी पत्नी सोमदासी श्राविका थी। वे दोनों जीवादि तत्त्वों के ज्ञाता तथा कृत-परिमाण अर्थात् व्रतों के धारक थे। उन्होंने चतुष्पद रखने का प्रत्याख्यान कर लिया था इसलिए वे दूसरों से दूध लेते थे। एक दिन एक आभीरी गोरस लेकर आई। श्राविका ने उससे कहा'गोरस बेचने के लिए तुम अन्यत्र मत जाया करो। तुम जितना गोरस लाओगी, मैं ले लूंगी।' इस प्रकार दोनों के परस्पर बात हो गई। श्राविका उसको गंधपुट आदि देती और वह आभीरी श्राविका को दूध, दही आदि देती। इस प्रकार दोनों में दृढ़ मैत्री हो गई। एक बार आभीरी के घर गोपाल का विवाह था। उसने श्रावकश्राविका-दोनों को निमंत्रण दिया। श्रावक बोला- 'अभी हम बहुत व्यस्त हैं, वहां नहीं आ सकते। तुम्हें विवाह-कार्य में भोजन के लिए कटाह आदि बरतन तथा वस्त्र, आभरण, पुष्प, फल आदि जो वस्तु चाहिए वह यहां से ले जाओ।' वे सारी वस्तुओं को पाकर परम प्रसन्न हुए। लोगों ने बहुत प्रशंसा की। उस आभीरी ने सेठ को तीन वर्षीय कंबल-संबल नाम वाले दो बैल दिए। श्रावक लेना नहीं चाहता था फिर भी बलात् उन दोनों बैलों को उसके घर बांध दिया। एक दिन श्रावक ने सोचा- 'यदि मैं इन बैलों को ऐसे ही छोड़ देता हूं तो दूसरे लोग इनको वाहन में जोत लेंगे अत: अच्छा हो ये यहीं रहें। वह उनका प्रासुक चारा से पोषण करने लगा। श्रावक अष्टमी, चतुर्दशी को उपवास करता, धर्म की पुस्तक पढ़ता। वे दोनों बैल उसे ध्यान से सुनते। श्रावक उपवास करता तो वे भी भूखे रहते। दोनों बैल भद्रक और सम्यक्त्वयुक्त थे। श्रावक ने सोचा कि ये दोनों बैल भव्य हैं, उपशांत हैं। श्रावक और इनके परस्पर बहुत स्नेह हो गया। एक बार नगर में भंडीरमणयात्रा का आयोजन था। श्रावक का मित्र 'भंडीरमणयात्रा' में बिना पूछे ही दोनों बैलों को ले गया। उनको खूब दौड़ाया। दोनों बैल परिश्रान्त हो गए। उसने दोनों को लाकर श्रावक के घर बांध दिया। उसी दिन से दोनों ने चारा-पानी छोड़ दिया। अंत में श्रावक ने दोनों बैलों को अनशन कराया। तब श्रावक उन्हें भक्त प्रत्याख्यान कराकर नमस्कार मंत्र सुनाता रहा। वे मरकर नागकुमार देवयोनि में उत्पन्न हुए। ६८. महावीर का चक्रवर्तित्व भगवान् ने नौका से उतर कर 'ईर्यावही' प्रतिक्रमण किया और आगे बढ़ गए। नदी के तट पर 'मधुसिक्थकर्दम' में भगवान् के पदचिह्न अंकित हुए। पुष्य नामक सामुद्रिक ने वे चिह्न देखे। उसने सोचा'आश्चर्य है चक्रवर्ती एकाकी गया है। ये पदचिह्न उसके चक्रवर्तित्व की सूचना दे रहे हैं। मैं जाऊं और उसे चक्रवर्तित्व की सूचना दूं, जिससे वह मुझे जीवन में सुख-सुविधा प्रदान करेगा।' भगवान् चलते-चलते स्थूणाक सन्निवेश के बाह्य उद्यान में पहुंचे और वहां प्रतिमा में स्थित हो गए। उसने वहां मुनि को देखकर सोचा- 'मेरा सामुद्रिक शास्त्र का अध्ययन पलालभूत है, निस्सारप्राय है। ऐसे लक्षणों वाला श्रमण नहीं हो सकता। इधर इन्द्र ने अवधिज्ञान से देखा कि भगवान् कहां हैं ? उसने भगवान् और उस पुष्य सामुद्रिक को भी देखा। वह आया और भगवान् को वंदना कर बोला- 'पुष्य! तुम लक्षणों को नहीं जानते। ये मुनि अपरिमित लक्षणों से युक्त हैं। इनके आभ्यन्तर लक्षण ये हैं इनका रुधिर गाय के क्षीर के समान श्वेत है।' १. आवनि. २८५, आवचू. १ पृ. २८०, २८१, हाटी. १ पृ. १३२, मटी. प. २७४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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