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________________ ३८२ परि. ३ : कथाएं डालकर बैठ गया। भगवान् उसकी अनुकंपा से वहीं ठहरे। भगवान् को देखकर गोपालक आदि वहां आए। वे स्वयं को वृक्षों की ओट में छुपाकर उस सर्प पर पत्थर फेंकने लगे। वह कंपन नहीं कर रहा है यह देखकर उन्होंने उसे काष्ठ से हिलाना शुरू किया। फिर भी वह अस्पंदित रहा। उन्होंने लोगों को सर्प की स्थिति बतलाई । लोग आकर भगवान् को वंदना कर सर्प की भी पूजा करने लगे। कुछ लोगों ने घृत से सर्प का मर्दन किया, उसका स्पर्श किया। घृत के कारण चींटिओं ने सर्प को चारों ओर से जकड़ दिया। उस विपुल वेदना को सर्प पन्द्रह दिनों तक सहता रहा और मरकर सहस्रार देवलोक में उत्पन्न हुआ। ६५. नागसेन द्वारा भिक्षा-दान वहां से भगवान् उत्तरवाचाला गए। वहां पाक्षिक तपस्या के पारणे के लिए वे गृहपति नागसेन के घर पहुंचे। गृहपति ने उन्हें क्षीर भोजन से प्रतिलाभित किया। वहां पांच दिव्य प्रादुर्भूत हुए। भगवान् वहां से श्वेतांबिका गए। वहां का प्रदेशी राजा श्रमणोपासक था। उसने भगवान् की वन्दना-पूजा की। कुछ दिन वहां रहकर भगवान् सुरभिपुर की ओर प्रस्थित हुए। रास्ते में उन्हें पांच रथों पर आरूढ नैयिक राजा मिले, जो प्रदेशी राजा के पास जा रहे थे। वे राजा रथों से उतरे, भगवान् को वंदना कर उनकी स्तुति की। वहां से भगवान् आगे बढ़े और सुरभिपुर पहुंचे। ६६. नौका में नागकुमार का उपद्रव आगे भगवान् को गंगा नदी पार करनी थी। वे तट पर पहुंचे। वहां सिद्धयात्र नामक नाविक की नौका तैयार थी। उसमें लोग बैठ रहे थे। शकुनों का ज्ञाता क्षेमिल भी वहीं था। उस समय एक शकुनदाता उलूक बोला। उसकी आवाज सुनकर क्षेमिल बोला-'बुरे शकुन के आधार पर यह प्रतीत होता है कि हमें मारणान्तिक कष्ट झेलना पड़ेगा पर इस महात्मा (भगवान् महावीर) के प्रभाव से हम कष्टमुक्त हो जाएंगे।' नौका आगे बढ़ी। तीक्ष्णदाढा वाले नागकुमार ने भगवान् को नौका में बैठे देखा। उसका रोष उभर आया। यह वही सिंह का जीव था, जिसको वासुदेव त्रिपृष्ठ के भव में महावीर ने मारा था। वह संसार में परिभ्रमण करता हुआ नाग बना। उसने संवर्तकवायु की विकुर्वणा कर नौका को डुबोना चाहा। इतने में कंबल-संबल रूप नागकुमार देवों का आसन चलित हुआ। उन्होंने अवधिज्ञान के उपयोग से जाना कि तीर्थंकर को उपसर्ग दिया जा रहा है। उन्होंने सोचा- 'दूसरों से हमें क्या प्रयोजन?' हमें भगवान् को उपसर्ग से मुक्त करना चाहिए। यह सोचकर वे दोनों देव वहां आए। एक देव ने नौका को थामा। दूसरा देव सुदाढानाग से युद्ध करने लगा। नागदेव का च्यवनकाल निकट था। कंबल देव अधुनोपपन्न तथा महर्द्धिक देव था। उसने नागदेव को पराजित कर डाला। वे दोनों नागकुमार भगवान् को वंदना कर उनके रूप और सत्व का गुणगान करने लगे। लोगों ने भी भगवान् की पूजा की। नदी को पार कर भगवान् नौका से उतरे। उस समय देवताओं ने सुरभित पुष्पों तथा गन्धोदक की वृष्टि की। १. आवनि. २८२, आवचू. १ पृ. २७७-२७९, हाटी. १ पृ. १३०, १३१, मटी. प. २७३, २७४। २. आवनि. २८३, आवचू. १ पृ. २७९, २८०, हाटी. १ पृ. १३१, १३२, मटी. प. २७४। ३. आवनि. २८४, २८६, आवचू. १ पृ. २८०, २८१, हाटी १ पृ. १३२, १३३, मटी. प. २७४, २७५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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