________________
'
३६२
परि. ३ : कथाएं
को जो तुम अधर्म - युद्ध करने में प्रवृत्त हुए हो। मुझे अब भोगों से कोई प्रयोजन नहीं है। राज्य तुम ले लो। मैं प्रव्रज्या ग्रहण करता हूं।' वह अपने हाथ में पकड़े हुए युद्धदंड को वहीं छोड़कर प्रव्रजित हो गया। भरत तक्षशिला का राज्य बाहुबलि के पुत्र को दे दिया।
प्रव्रजित होकर बाहुबलि ने सोचा- 'पिताश्री के पास मेरे लघु भाई प्रव्रजित हैं । उन्हें ज्ञानातिशय लब्ध है। मैं ज्ञान के अतिशय से शून्य हूं। मैं उन्हें कैसे वंदन करूंगा ? मुझे जब तक केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक मैं यहीं साधना करूंगा।' यह सोचकर बाहुबलि प्रतिमा में स्थित हो गए । वे अहंकार रूपी पर्वतशिखर पर आरूढ थे । भगवान् ऋषभ बाहुबलि की स्थिति को जानते थे, फिर भी किसी को समझाने नहीं भेजा क्योंकि तीर्थंकर अमूढलक्ष्य होते हैं। बाहुबलि एक वर्ष तक कायोत्सर्ग प्रतिमा में स्थित रहे। लताओं ने उनके शरीर को वेष्टित कर दिया । वल्मीक से निकले भुजंगमों ने पैरों को घेर लिया। एक वर्ष बीत जाने पर भगवान् ऋषभ ने ब्राह्मी और सुन्दरी को बाहुबलि के पास भेजा। पहले उन्होंने इसलिए नहीं भेजा क्योंकि वे जानते थे कि अभी बाहुबलि इसे सम्यक् ग्रहण नहीं करेगा । ढूंढते ढूंढते ब्राह्मी और सुन्दरी ने बाहुबलि का शरीर वल्लियों से वेष्टित देखा। उनके केश लंबे हो गए थे। देखकर उन्होंने वन्दना की। दोनों बहिनें बोलीं- 'मुने ! पिताश्री भगवान् ऋषभ ने कहा है कि हाथी पर आरूढ व्यक्ति को कैवल्य की उपलब्धि नहीं हो सकती।' इतना कहकर वे दोनों चली गईं। यह सुनकर बाहुबलि ने सोचा- 'यहां हाथी कहां है? पिताश्री असत्य नहीं कहते। ' सोचते-सोचते वे जान गए कि मैं मान रूपी हाथी पर आरूढ़ हूं। मुझे अभिमान किसका करना चाहिए? मैं जाऊं और भगवान् तथा दूसरे भाई मुनियों को भी वंदना करूं । यह सोचकर बाहुबलि ने ज्योंही चरण उठाए केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। वहां से चलकर वे भगवान् के समवसरण में पहुंचे और केवली - परिषद् के बीच बैठ गए।"
४४. भरत का भगवान् के पास आगमन और यज्ञोपवीत का प्रवर्त्तन
भगवान् ऋषभ विहरण करते हुए अष्टापद पर आए। वहां समवसरण की रचना हुई । भाइयों की प्रव्रज्या से भरत बहुत खिन्न हो गया। उसने सोचा, 'कदाचित् प्रव्रजित भाई पुनः भोगों के प्रति आकृष्ट होंगे । यदि वे भोग स्वीकार करेंगे तो मैं उनको दे दूंगा।' वह भगवान् के पास आया और भोग स्वीकार करने के लिए मुनियों को निमंत्रण दिया पर वे सब त्यक्तसंग थे अतः वान्त भोगों की इच्छा नहीं की। भरत ने सोचा, 'इन त्यागी मुनियों को आहार का दान देकर धर्मानुष्ठान करूं।' यह सोचकर वह पांच सौ शकटों में विभिन्न प्रकार का आहार भरकर वहां लाया और मुनियों को आहार लेने के लिए निमंत्रित किया। भगवान् ने मुनियों को आधाकर्म आहार लेना नहीं कल्पता - यह कहकर आहार ग्रहण करने की मनाही कर दी फिर भरत ने अकृत और अकारित अन्न-पान के लिए निमंत्रित किया पर मुनियों ने उसे भी राजपिंड कहकर नकार दिया। भरत ने सोचा—‘मैं सभी प्रकार से भगवान् द्वारा परित्यक्त हो गया हूं।' वह उन्मना और उदास हो गया। यह देखकर इन्द्र ने उसके शोक को शान्त करने के लिए भगवान् को अवग्रह के विषय में पूछा । भगवान् बोले- 'अवग्रह पांच प्रकार का होता है- देवेन्द्रावग्रह, राजावग्रह, गृहपतिअवग्रह, सागारिकअवग्रह और साधर्मिकअवग्रह। इन अवग्रहों में राजा - भरत, गृहपति - मांडलिक राजा, सागारिक - शय्यातर और १. आवनि २१३, आवचू. १ पृ. २१०, २११, हाटी. १ पृ. १०१, १०२, मटी. प. २३१ - २३२ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org