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________________ आवश्यक नियुक्ति ३६१ कुमार एकत्रित हुए। उन्होंने भगवान् से कहा- 'प्रभो! भरत आपके द्वारा प्रदत्त राज्य का हरण करना चाहता है। हम क्या करें? क्या हम उसके साथ युद्ध करें अथवा उसकी आज्ञा को स्वीकार करें?' तब भगवान् ने उन सबको भोगों से निवृत्त करने के लिए धर्मोपदेश देते हुए कहा- 'मुक्ति के सदृश कोई सुख नहीं है। देखो, मैं तुम्हें एक दृष्टान्त सुनाता हूं। एक अंगारदाहक लकड़ियां लेने जंगल में गया। वह अपने साथ पानी से भरा एक घट ले गया। प्यास लगने पर घट का सारा पानी समाप्त हो गया। ऊपर सूर्य तप रहा था। दोनों पार्श्व में अंगार बनाने के लिए अग्नि प्रज्वलित थी। लकड़ियों को तोड़ने में पूरा परिश्रम हो रहा था। घर जाकर उसने पानी पीया और मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। उसने स्वप्न में देखा कि उसे तीव्रतम प्यास लगी है और उसने उस समय प्यास को मिटाने के लिए सारे कूट, तालाब, नदी, सरोवर और समुद्र का पानी पी लिया है, फिर भी प्यास नहीं मिटी। उसने एक तृण पूला लिया। एक जीर्ण कूप में थोड़ा सा पानी था। उसने पूले से पानी बाहर निकालना चाहा। कुछेक बूंदें जो तृण पूले के लगी थीं, उनको अपनी जिह्वा पर डालकर स्वाद लेने लगा। क्या उस पानी से उसकी प्यास बुझेगी?' तुम सबने भी अनुत्तर शब्द, स्पर्श आदि का सर्वार्थसिद्ध देवलोक में उपभोग किया है। फिर भी तृप्ति नहीं मिली। भगवान् ने उन्हें वैतालिक (सूत्राकृतांग का दूसरा अध्ययन) 'संबुझह किं न बुज्झ'का उपदेश किया। गाथाएं सुनकर एक-एक कर कुमार संबुद्ध होते गए और ९८ श्लोकों को सुनकर सभी भाई प्रव्रजित हो गए। ४३. बाहुबलि को कैवल्य अठानवें भाइयों के प्रव्रजित हो जाने पर भरत ने बाहुबलि के पास दूत भेजा। जब बाहुबलि को यह ज्ञात हुआ कि ९८ भाई प्रव्रजित हो गए हैं, तो वह बहुत रुष्ट हुआ। दूत को सुनाते हुए बाहुबलि बोला'भरत! तुमने उन भाइयों को प्रव्रज्या लेने के लिए बाध्य कर दिया। वे बालक थे, असमर्थ थे।' पर मैं युद्ध करने में समर्थ हूं। जाओ, भरत को कहो कि मुझे जीते बिना उसकी कौनसी जीत! और कैसा चक्रवर्तित्व? दोनों ओर युद्ध की तैयारी हुई और दोनों सेनाएं देश के प्रान्त भाग में आ मिलीं। बाहुबलि ने भरत से कहा'निर्दोष लोगों को मारने से क्या लाभ? मैं और तुम-दो ही युद्ध करें।' भरत ने स्वीकृति दे दी। सबसे पहले दृष्टियुद्ध हुआ। भरत उसमें पराजित हो गया। दूसरे वाग्युद्ध में भी भरत हार गया। बाहुयुद्ध में भी उसकी पराजय हुई। मुष्टियुद्ध में भी वह हार गया। अब अंतिम था दंडयुद्ध। उसमें भी पराजित होते हुए भरत ने सोचा-'क्या यह बाहुबलि ही चक्रवर्ती है जो मैं इससे पराजित होता जा रहा हूं?' उसके इस प्रकार चिन्तन करने पर देवताओं ने उसे दिव्य दंडरत्न का आयुध दिया। भरत उस दंडरत्न को लेकर दौड़ा। बाहुबलि ने देखा कि भरत दिव्य आयुध लेकर आ रहा है। बाहुबलि का अहं बोला- 'मैं इस भरत को इस दिव्यरत्न के साथ नष्ट कर दूंगा।' फिर उसने सोचा- 'भरत प्रतिज्ञाच्युत हो गया है। इन तुच्छ कामभोगों के लिए इस भ्रष्टप्रतिज्ञ को मारना उचित नहीं है। मेरे अन्यान्य भाइयों ने प्रव्रज्या लेकर अच्छा किया। मैं भी उसी अनुष्ठान का अनुसरण करूं', यह सोचकर वह भरत से बोला-'धिक्कार है, धिक्कार है तुम्हारे पुरुषार्थ १. आवनि २१२, आवचू. १ पृ. १८२-२१०, हाटी. १ पृ. १००, १०१, मटी. प. २३०, २३१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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