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________________ ३५९ आवश्यक नियुक्ति भगवान् के साथ अभिनिष्क्रमण करने वाले और बाद में तापस बनने वाले सभी तापस भगवान् के पास आए। वे भी भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवताओं की परिषद् देखकर भगवान् के पास प्रव्रजित हो गए। कच्छ और महाकच्छ नहीं आए। उस समवसरण में मरीचि आदि अनेक कुमार प्रव्रजित हुए। ४२. भरत का विजय-अभियान भगवान के कैवल्य का अष्टाह्निक महोत्सव मनाकर भरत चला गया। चक्र की पूजा करने की इच्छा से सिंहासन पर बैठकर उसने कौटुम्बिक पुरुषों को आदेश दिया कि विनीता राजधानी की बाहर और भीतर से सफाई करके गंधोदक का छिड़काव करो। आदेश देकर वह स्वयं मज्जनगृह में प्रविष्ट हुआ। वहां से धूप, फूल, माला आदि हाथ में लेकर आयुधशाला की ओर गया। अनेक राजा, ईश्वर, माडंलिक, सार्थवाह आदि उसके पीछे-पीछे चलने लगे। अनेक दासियां भंगार, धूप आदि लेकर राजा भरत के पीछेपीछे चलने लगीं। आयधशाला में जाकर भरत ने चक्र को प्रणाम करके उसकी पूजा की। पूजा करके भरत अपनी उपस्थानशाला में उपस्थित हुआ। उसने श्रेणी-प्रश्रेणी आदि को आज्ञा दी कि चक्र -उत्पत्ति की प्रसन्नता में आठ दिन का उत्सव मनाया जाए। महोत्सव की संपन्नता होते ही चक्ररत्न पूर्वाभिमुख होकर गतिमान् हो गया। महाराज भरत भी अपने सैन्यबल के साथ उसके पीछे चला। चक्ररत्न एक योजन दूरी पर जाकर ठहर गया। तब से योजन की संख्या का प्रवर्तन हुआ। भरत चक्रवर्ती पूर्व में मागधतीर्थ को प्राप्त हुआ। मागधतीर्थ के पास भरत ने बारह योजन लम्बे तथा नौ योजन चौड़े श्रेष्ठ नगर की भांति विजय नामक स्कंधावार का निर्माण किया। फिर वर्धकि रत्न को बुलाकर आदेश दिया कि शीघ्र ही मेरे लिए आवासस्थल एवं पौषधशाला का निर्माण करो और इसके निर्माण की मुझे सूचना दो। इसके बाद चक्रवर्ती भरत हस्तिरत्न पर चढ़कर पौषधशाला में गया और वहां मागधतीर्थ कुमार को लक्ष्य कर दर्भसंस्तारक पर स्थित होकर तेले की तपस्या की। तेले का पारणा करके वह छत्रसहित अश्वरत्न पर चढ़ा। अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ चक्र द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर राजाओं के साथ सिंहनाद और जय-जय की ध्वनि करते हुए पूर्व में मागधतीर्थ से लवण समुद्र का अवगाहन किया। रथ से चक्रनाभि तक समुद्र का अवगाहन कर अपना नामांकित बाण छोड़ा। वह बाण बारह योजन दूर मागधतीर्थ कुमार के भवन में जाकर गिरा । कुमार उस बाण को देखकर क्रुद्ध हुआ और भृकुटि चढ़ाकर बोला- 'कौन है यह अप्रार्थितप्रार्थक?' फिर उसने बाण पर अपना नाम देखकर जान लिया कि भारत वर्ष में भरत नामक चक्रवर्ती उत्पन्न हो गया है। तब वह शर, हार, कुंडल और चूड़ामणि आदि लेकर भरत के समक्ष उपस्थित होकर बोला- 'मैं आपका पूर्ववर्ती अन्तपाल हूं।' तब उसने भरत की अष्टाह्निक महामहिमा की। इसी क्रम से भरत ने दक्षिण में वरदाम और पश्चिम में प्रभास को प्राप्त किया। फिर आकाशमार्ग से चलते-चलते वह सिन्धुदेवी को प्राप्त हुआ। सिंधुदेवी के भवन के पास विजय स्कंधावार का निर्माण कर भरत ने तेले की तपस्या से सिंधुदेवी की आराधना की। सिंधुदेवी का आसन चलित हुआ। अवधिज्ञान से उसने सारी स्थिति को देखा। उसने अनेक आभरणों आदि से भरत का सम्मान १.आवनि २१०, आवचू. १ पृ. १८१, हाटी. १ पृ. ९९, १००, मटी. प. २२९, २३० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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