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________________ ३५८ परि. ३ : कथाएं सर्वरत्नमय, एक योजन परिमंडल वाला तथा पांच योजन ऊंचा दंड था। भगवान् वहां से बहली आदि अनेक जनपदों में निर्विघ्न विहरण करते हुए विनीता नगरी के उद्यानस्थान वाले पुरिमताल नगर में समवसृत हुए। उसके उत्तरपूर्वभाग में शकटमुह उद्यान में भगवान् न्यग्रोध पादप के नीचे बैठे थे। उनके तेले की तपस्या थी । फाल्गुनकृष्णा एकादशी, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र, पूर्वाह्न का समय, प्रव्रज्या के दिन से हजार वर्ष बीतने पर, त्रिभुवन के मित्रभूत भगवान् ऋषभ को केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी । देवताओं ने कैवल्य-प्राप्ति का उत्सव मनाया। ४०. चक्ररत्न की उत्पत्ति भरत के गुप्तचर उसको प्रतिदिन ऋषभ की सुखसाता का संवाद देते थे । भरत को उन्होंने ज्ञानरत्न और चक्ररत्न-दोनों की उत्पत्ति के समाचार एक साथ दिए । भरत ने सोचा- 'पूजा दोनों की करनी है परन्तु पहले किसकी पूजा की जाए ? चक्ररत्न की पूजा करूं अथवा पिताश्री की ?' उसने मन ही मन समाधान कर लिया कि पिताश्री की पूजा कर लेने पर चक्ररत्न की पूजा स्वयं संपन्न हो जाती है। चक्र ऐहलौकिक सुख का वाहक है और तात परलोक-सुख के हेतु हैं। भरत सर्वऋद्धि के साथ भगवान् को वंदना करने के लिए प्रस्थित हुआ। ४१. मरुदेवा की सिद्धि ऋषभ के प्रव्रजित हो जाने पर भरत की राज्य श्री को देखकर मरुदेवा बोली- 'मेरे पुत्र की भी ऐसी ही राज्यश्री थी । वर्तमान में वह भूखा-प्यासा और नग्न होकर गांव-गांव में घूमता है।' वह भरत के सामने बहुत दुःख व्यक्त करने लगी। अनेक बार भरत भगवान् की विभूति का वर्णन करता परन्तु मरुदेवा उस पर विश्वास नहीं करती थी । पुत्रशोक से विह्वल होकर वह रुदन करती । रुदन से उसकी आंखें कुम्हला गईं। भगवान् के दर्शन करने जाते समय भरत ने मरुदेवा को साथ चलने के लिए कहा और बोला- 'चलो, मैं तुमको भगवान् की विभूति दिखाऊं ।' हाथी पर आरूढ मरुदेवा को आगे कर भरत दर्शनार्थ चला। समवसरण के निकट जाकर उन्होंने देखा कि विमानों में आरूढ देवतागण आ रहे हैं, चारों ओर देवदुन्दुभियां बज रही हैं। पूरा गगनमंडल उनके नाद से भर गया है। भरत ने मरुदेवा से कहा- 'देखो ! इनकी ऋद्धि के समक्ष मेरी समृद्धि तिलतुष मात्र या कोटिशतसहस्रभाग भी नहीं है।' मरुदेवा भगवान् का छत्रातिछत्र अतिशय देख रही थी। उसे तत्काल कैवल्य की प्राप्ति हुई और वह आयुष्य पूर्ण कर सिद्ध हो गई। इस भरत क्षेत्र के अवसर्पिणी काल में वह प्रथम सिद्ध हुई । देवताओं ने पूजा-अर्चा की और मृत शरीर को क्षीर समुद्र में प्रवाहित कर दिया। उस समय भगवान् समवसरण में धर्मकथा कर रहे थे । समवसरण में भरत का पुत्र ऋषभसेन उपस्थित था। उसके पहले ही गणधरनामगोत्र का बंध हो चुका था । उसको विरक्ति हुई और वह प्रव्रजित हो गया। ब्राह्मी ने दीक्षा ग्रहण कर ली । भरत श्रावक बन गया। सुंदरी भी प्रव्रजित हो रही थी, परंतु भरत ने यह कहकर निषेध कर दिया कि वह उसकी स्त्रीरत्न होगी। तब वह श्राविका बनी । चतुर्विध श्रमणसंघ की उत्पत्ति 1 १. आवनि २०४-२०८, आवचू. १ पृ. १८०, १८१, हाटी. १ पृ. ९८, मटी. प. २२८ । २. आवनि २०८, २०९, आवचू. १ पृ. १८१, हाटी. १ पृ. ९९, मटी. प. २२९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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