SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 417
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५६ परि.३: कथाएं आभरण और कन्या आदि का उपहार भेंट करते। लोग भिक्षा की विधि नहीं जानते थे। भिक्षा प्राप्त न होने पर जो चार हजार व्यक्ति भगवान् ऋषभ के साथ प्रव्रजित हुए थे, वे भरत के भय से घर भी नहीं आ सके अतः वन में जाकर तापस बन गए। उन्होंने कंद-मूल और फल खाना प्रारम्भ कर दिया। भगवान् को बिना आहार किए एक साल हो गया। सामुदानिक भिक्षा के लिए जब ऋषभ निकलते तो लोग कहते कि ये हमारे परमस्वामी हैं। पर उन्हें क्या देना है, इस बात से वे अनभिज्ञ थे। छद्मस्थ अवस्था में भगवान् बहली, अडंब आदि देशों में घूमते हुए गजपुर-हस्तिनापुर आए। कुरु जनपद में गजपुर नाम का नगर था। वहां भरत का पुत्र सोमप्रभ राज्य करता था। उसका पुत्र श्रेयांस युवराज था। एक दिन उसने स्वप्न में मंदर पर्वत को श्याम वर्ण वाला देखा तथा अपने हाथों से अमृतकलशों से उसका अभिसिंचन किया। अभिषेक से मेरु पर्वत अत्यधिक शोभित होने लगा। उसी दिन नगर सेठ सुबुद्धि ने स्वप्न में देखा कि सूर्य की हजार किरणें अपने स्थान से चलित हो गई हैं। श्रेयांस ने उन्हें उठाया जिससे वह सूर्य अत्यधिक तेजस्वी हो गया। महाराज सोमप्रभ ने स्वप्न में एक महाप्रमाण पुरुष को बहुत बड़ी शत्रु-सेना के साथ युद्ध करते देखा। श्रेयांस ने उस महाप्रमाण पुरुष को सहयोग दिया तब वह शत्रुसेना पलायन कर गई। वे तीनों सभामंडप में एकत्रित हुए। तीनों ने अपना-अपना स्वप्न राजा सोमप्रभ को बताया, परंतु तीनों ही स्वप्न का फल नहीं जानते थे। युवराज को कोई बड़ा लाभ होगा, यह कहकर राजा सोमप्रभ चला गया। श्रेयांस भी अपने भवन में चला गया। गवाक्ष में बैठे हुए श्रेयांस ने ऋषभ स्वामी को नगर में प्रवेश करते हुए देखा। उसने सोचा, जैसा मेरे प्रपितामह का वेश है, वैसा मैंने कहीं देखा है। सोचते-सोचते उसे पूर्वजन्म की स्मृति हो गयी। पूर्वभव में वह भगवान् का सारथी था। वहां उसने तीर्थंकर वज्रसेन को तीर्थंकर वेश में देखा था। वज्रनाभ के साथ वह भी प्रव्रजित हुआ था। वहां उसने सुना था कि वज्रनाभ भरतक्षेत्र में प्रथम तीर्थंकर होंगे। ये वे ही भगवान् हैं। भगवान् को कुछ भक्त-पान देना चाहिए वह ऐसा सोच ही रहा था कि श्रेयांस के पास एक मनुष्य इक्षुरस से भरे घड़े लेकर आया। श्रेयांस परम हर्ष से युक्त होकर, बहुमूल्य एवं नए कपड़े पहनकर, गोशीर्ष और चंदन का लेप करके, मणि और सुवर्ण से युक्त कुंडलों से उद्योतित मुख वाला होकर, सिर पर मुकुट धारण करके कल्पवृक्ष की भांति अलंकृत और विभूषित होकर, लोगों के द्वारा जय-जय नाद का शब्द किए जाते हुए, परिवार से संवृत होकर उठा। उठकर अपनी पादुका को खोलकर, धोती का उत्तरासंग किया। फिर हाथ जोड़कर आठ-दस कदम भगवान् के सम्मुख आया। तीन बार प्रदक्षिणा देकर भगवान् को वंदना की। अपने भवन के आंगण में स्वयं ही इक्षुरस का घट उठाकर श्रेयांस भगवान् के पास आया। भगवान् ने उसे स्वयोग्य भिक्षा मानकर हाथ पसारे। श्रेयांस ने सारा इक्षरस अंजलि में उंडेल दिया। भगवान की अंजलि निश्छिद्र होती है। ऊपर शिखा तक भर देने पर भी नीचे कुछ नहीं गिरता, यह भगवान् की लब्धि है। भगवान् ने एक वर्ष की तपस्या का पारणा किया। वहां पांच दिव्य प्रादुर्भूत हुए-१. वसुधारा की वृष्टि २. देवताओं द्वारा चेलोत्क्षेप ३. देवदुन्दुभि का वादन ४. गन्धोदक और पुष्पवृष्टि ५. आकाश में अहोदानं १. मलयगिरि और हारिभद्रीय टीका में बाहुबलि के पुत्र सोमप्रभ का पुत्र श्रेयांस था। चूर्णिकार ने इस मान्यता को 'अण्णे भणंति' कहकर उल्लिखित किया है। उन्होंने श्रेयांस को भरत के पुत्र सोमप्रभ का पुत्र माना है। आवचू. १ पृ. १६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy