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________________ आवश्यक नियुक्ति ३५५ तुम्हारी अभिलाषा पूरी करेंगे।' पिता की बात सुनकर वे भगवान् के पास उपस्थित हुए। उन्होंने भगवान् को उपालम्भ देते हुए कहा-'आपने हमारा किसी वस्तु में संविभाग नहीं किया।' वे कवच आदि धारण कर हाथ में तलवार लेकर भगवान् ऋषभ की सेवा में रहने लगे। वे प्रतिदिन कमलपत्र का दोना बनाकर पानी लाते और भगवान् के चारों ओर वर्षण कर सुगंधित फूलों का घुटने जितना ढेर कर देते। वे तीनों संन्ध्याओं में भगवान् को निवेदन करते–'आपने सभी पुत्रों को राज्य और भोग दिए हम आपके दत्तक पुत्र हैं अतः हमें भी दें। इस प्रकार तीनों संन्ध्याओं में निवेदन करते हुए वे भगवान् की सेवा में काल बिताने लगे।' एक बार नागकुमारेन्द्र धरण भगवान् को वंदना करने के लिए आया। नमि-विनमि ने उनके सामने भी यही बात कही। नमि-विनमि को याचना करते हुए देखकर धरणेन्द्र ने कहा- 'भगवान् तो त्यक्त संग हैं। ये न रोष करते हैं और न ही किसी पर संतुष्ट होते हैं।' ये अपने शरीर के प्रति भी निर्मोही हैं। ये अकिंचन, परमयोगी, निरुद्धास्रव और कमलपत्र की भांति निरुपलेप हैं। आप लोग इनसे याचना मत करो। तुम्हारी.भगवान् की सेवा व्यर्थ न हो इसलिए पढ़ने मात्र से सिद्ध होने वाली गंधर्व प्रज्ञप्ति आदि ४८ हजार विद्याएं तुमको देता हूं, उनमें चार विद्याएं ये हैं-१. गौरी, २. गांधारी, ३. रोहिणी, ४. प्रज्ञप्ति । धरणेन्द्र ने कहा- 'तुम लोग विद्याधर ऋद्धि से अपने जनपद एवं स्वजन लोगों को प्रलोभन देकर वैताढ्य पर्वत पर विद्याधर-नगरों का निर्माण करो।' दोनों भाइयों ने कृपा प्राप्त कर तीर्थंकर और नागराज को वंदना की। पुष्पक विमान की विकुर्वणा कर वे कच्छ महाकच्छ के पास आए। अपनी सफलता और धरणेन्द्र के प्रसाद की बात उन्हें बता वे अयोध्या नगरी गए। उन्होंने भरत को सारा वृत्तान्त बताया। फिर वैताढ्य पर्वत की उत्तर श्रेणी में विनमि ने गगनवल्लभ प्रमुख ६० नगरों का निर्माण किया तथा नमि ने वैताढ्य पर्वत की दक्षिणश्रेणी में चक्रवाल प्रमुख ५० नगरों का निर्माण किया। जो जिस जनपद से मनुष्यों को लाया वैताढ्य पर्वत पर वे उसी नाम की बस्तियां हो गयीं। विद्याधर-निकायों के नाम इस प्रकार थे१. गोरियों की गोरिक ६. भूमितुंडिक की भूमितुंडिक ११. समकी की समक २. मनुओं की मनुज ७. मूलवीर्य की मूलवीर्य १२. मातंगी की मातंग ३. गंधारियों की गांधार ८. शंबुक्क की शंबुक्क १३. पार्वती की पार्वत ४. मानवी की मानव ९. पटूकी की पटूक १४. वंसालय की वंसालय ५. कैशिकों की कैशिक १०. काली की कालीय १५. पांशुमूलिक की पांशुमूलिक १६. वृक्षमूलिक की वृक्षमूलिक र नमि विनमि ने सोलह विद्याधर निकायों का विभाग कर आठ-आठ निकाय आपस में बांट लिए। विद्याबल से वे गगनचारी बनकर परिजनों के साथ मनुष्य तथा देव सम्बन्धी भोगों को भोगने लगे। ३८. ऋषभ का पारणा भगवान् ऋषभ निराहार, स्वयंभू सागर की भांति अविचल और शान्त रूप से विहरण करने लगे। उनके साथ दीक्षित चार हजार व्यक्ति भी थे। जब भगवान् भिक्षा के लिए जाते तो लोग अश्व, हाथी, १. मटी. की अपेक्षा चूर्णि में इन नामों में कुछ अंतर है। आवचू. १ पू. १६२। २. आवनि १९८, आवचू. १ पृ.१६१, १६२, हाटी. १ पृ. ९६, मटी. प. २१५, २१६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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