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परि.३ : कथाएं
मित्रों ने सोचा कि वह स्थान नहीं देता। वह भी इन साधुओं से प्रवंचित हो, ऐसा सोचकर उन्होंने साधुओं को साप्तपदिक का घर बताते हुए कहा- 'वह आपको स्थान अवश्य देगा क्योंकि वह तुम्हारा भक्त श्रावक है। साधु वहां गए। उन्होंने स्थान के लिए पूछा परन्तु उसने साधुओं को कोई आदर नहीं दिया।' तब एक साधु ने कहा- 'हम कहीं दूसरे के घर तो नहीं आ गए। हमें तो कहा गया था कि वह श्रावक ऐसा है, वैसा है। हम तो ठगे गए।' यह सुनकर साप्तपदिक ने सारी बात पूछी। उत्तर देते हुए मुनि ने कहा- 'अभी एक मित्र ने आपके विषय में बहुत कुछ बताया था, इसीलिए हम यहां आए हैं।' यह सुनकर उसने सोचा, 'अकार्य हो गया। मैं भले ही ठगा जाऊं, पर साधुओं की कैसी प्रवंचना!' उसने मुनियों से कहा- 'मैं आपको स्थान दे सकता हूं, परन्तु आपको एक व्यवस्था रखनी होगी कि आप मुझे कभी धर्म का उपदेश नहीं देंगे।' साधुओं ने कहा- 'ठीक है।' उसने रहने के लिए साधुओं को स्थान दे दिया। चातुर्मास प्रारंभ हुआ। धर्मदेशना चलती रही। चातुर्मास पूर्ण होने पर साप्तपदिक ने धर्म पूछा। मुनियों ने धर्मवार्ता सुनाई परन्तु साप्तपदिक कुछ भी परित्याग करने में समर्थ नहीं हुआ। न वह मूलगुण-उत्तरगुण विषयक व्रत लेना चाहता था और न मद्य-मांस और मधु की विरति ही करना चाहता था, तब मुनि बोले- 'तुम साप्तपदिक व्रत ग्रहण करो अर्थात जिसको तम मारना चाहो, उसे मारने से पूर्व सात कदम पीछे चलने में जितना समय लगे उतने
की प्रतीक्षा करने के पश्चात् ही किसी को मारना। यह व्रत उसने स्वीकार कर लिया। साधुओं ने जान लिया कि यह एक न एक दिन संबुद्ध होगा। साधु वहां से अन्यत्र चले गए।
एक बार वह चोरी करने घर से निकला। मार्ग में अपशकन हो जाने के कारण वह वापस घर की ओर लौटा। चलते-चलते वह रात्रि में घर आया और मंद गति से घर में घुसा। उस दिन उसकी बहिन वहां आई थी और वह पुरुषवेश में अपनी भाभी के साथ नृत्यविशेष को देखने गई थी। देर रात से घर लौटने पर वह भाभी के साथ उसी पुरुषवेश में सो गई। साप्तपदिक ने देखा कि उसकी पत्नी किसी पर-पुरुष के साथ सो रही है। वह क्रोध से उबल पड़ा और मारने के लिए तलवार बाहर निकाली। इतने में ही गृहीत व्रत की स्मृति हो आई। वह सात कदम पीछे हटा। इतने में ही भगिनी की बाहु पर भार्या का सिर आक्रान्त हुआ। भगिनी की नींद उड़ गई। वह बोली- 'भाभी मेरी भुजा दुःखने लगी है अत: तुम अपना सिर उठाओ।' साप्तपदिक ने भगिनी के स्वरों को पहचान लिया। उसने मन ही मन लज्जा का अनुभव किया कि मैंने पुरुषवेश में इसे पर-पुरुष मान लिया। यदि व्रत नहीं होता तो आज अनर्थ हो जाता। प्रतीक्षा करने के कारण आज मैं अनर्थ से बच गया। वह संबुद्ध होकर प्रव्रजित हो गया। १६. कोंकण देश का बालक
कोंकण देश में पिता-पुत्र रहते थे। बालक की मां मर गई। पिता दूसरा विवाह करना चाहता था किन्तु सपत्नी-पुत्र के कारण कोई भी महिला विवाह करने के लिए तैयार नहीं होती थी। एक दिन पिता
और पुत्र दोनों लकड़ी लाने जंगल में गए। पिता ने सोचा- 'मुझे अपने इस पुत्र के कारण विवाह करने योग्य स्त्री नहीं मिल रही है अत: मुझे इसे मार डालना चाहिए।' यह सोचकर पिता ने बाण को दूर फेंक कर पुत्र
१. आवनि ११९, आवचू. १ पृ. १११, ११२, हाटी. १ पृ. ६१, ६२, मटो. प. १३५, १३६, बृभाटी. पृ. ५५ ।
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