________________
३३०
परि. ३ : कथाएं ने प्रच्छन्न रूप से भेजे गए प्रहरी से यथार्थ स्थिति को जान लिया।
राजा ने आचार्य से कहा-'ठीक है, अब साधु की परीक्षा की जाए। राजा ने अविनीत प्रतीत होने वाले साधु की ओर इशारा किया। आचार्य ने उसे बुलाकर आदेश दिया- 'गंगातट पर देखकर आओ कि गंगा किधर बह रही है ?' साधु ने सोचा कि गुरु के मुख से सुना है कि गंगा पूर्व की ओर बहती है फिर भी गुरु ने कुछ सोच-समझकर आदेश दिया होगा। ऐसा निश्चय कर वह गंगातट पर गया। वहां गंगा को पूर्वाभिमुख देखा। उसने लोगों से भी इस संदर्भ में पूछा तथा सूखे तृण को गंगा में प्रवाहित करके अन्वयव्यतिरेक से जान लिया कि गंगा पूर्व की ओर बह रही है। वहां से आकर उसने गुरु को निवेदन किया कि गंगा पूर्वाभिमुख बहती है। प्रच्छन्न रूप से भेजे गए राज-प्रहरियों ने भी यथार्थ स्थिति की अवगति राजा को दी। राजा ने सहर्ष आचार्य की बात को स्वीकार कर लिया। ८. चित्रकार
साकेत नगर के उत्तरपूर्व में सुरप्रिय नामक यक्षायतन था। वहां सुरप्रिय यक्ष की प्रतिमा थी, जो अतिशयधारी थी। वह प्रतिमा प्रतिवर्ष चित्रित होती थी। उस अवसर पर धूमधाम से उत्सव मनाया जाता था। जो चित्रकार उसको चित्रित करता, वह यक्ष द्वारा मार दिया जाता था। यदि यक्ष का चित्र नहीं किया जाता तो यक्ष उस नगर में जनमारी फैला देता, जिससे अनेक लोग मारे जाते थे। उसके आतंक से सभी चित्रकार एक-एक कर नगर से पलायन करने लगे। राजा तक यह बात पहुंची। राजा ने सोचा- 'यदि सभी चित्रकार नगर से चले जाएंगे तो यह यक्ष चित्रित न होने पर हमारा वध कर देगा।' राजा ने तब सभी चित्रकारों की एक सूची तैयार की और उनके नाम पृथक्-पृथक् पत्रों में लिखकर, सभी पत्रों को एक घट में डाल दिया। राजा ने कहा- 'इस घट से प्रतिवर्ष नामांकित एक-एक पत्र निकाला जाएगा। जिसका नाम उस पर होगा, उसको यक्ष का चित्र बनाना होगा।' सबने यह बात स्वीकार कर ली। काल बीतने लगा।
एक बार कौशाम्बी नगरी के एक चित्रकार का लड़का घर से पलायन कर साकेत नगर में चित्रकारी सीखने आ पहुंचा। वह घूमता हुआ साकेत नगर के एक चित्रकार के घर में ठहरा। उस घर में एक वृद्धा रहती थी। उसका एकमात्र पुत्र चित्रकार था। वह आगंतुक युवक वहां रहा और दोनों में गाढ़ मित्रता हो गई। उस वर्ष वृद्धा के पुत्र चित्रकार की बारी आ गई। वृद्धा ने जब यह जाना तो वह बहुत विलाप करने लगी। उसको विलाप करते देखकर कौशाम्बी से समागत चित्रकार-पुत्र ने पूछा- 'मां! तुम रो क्यों रही हो?' वृद्धा ने उसे सारी बात बताई। उसने कहा-'मां! तुम रोओ मत। मैं उस यक्ष को चित्रित करूंगा।' वृद्धा बोली- 'क्या तुम मेरे पुत्र नहीं हो?' वह बोला-'मां! मैं तुम्हारा ही पुत्र हूं, फिर भी मैं यक्ष को चित्रित करूंगा। तुम सब प्रसन्न रहो।'
समय पर उसने दो दिन की तपस्या की और नया वस्त्र-युगल धारण कर, आठ पटल वाले वस्त्र को मुंह पर बांध, शुद्ध होकर यक्षायतन में गया। उसने जलभृत नए कलशों से मूर्ति को स्नान कराया और नए कूर्चक तथा नए मल्लक संपुटों से आश्लिष्ट रंगों से यक्ष को चित्रित किया। फिर श्रद्धापूर्वक यक्ष के चरणों में लुठकर बोला- 'हे देव! आप मेरे अपराध को क्षमा करें।' प्रसन्न होकर यक्ष ने कहा-'वरदान
१. आवचू. १ पृ. ८२, मटी, प. ९२, ९३, चूर्णि और हाटी में इस कथा का संकेत मात्र है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org