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________________ ३७ भूमिका २. मलयगिरीया टीका ३. आवश्यकनियुक्ति दीपिका। इन तीनों में भी गाथा-संख्या में अनेक स्थलों पर विसंवादिता या विप्रतिपत्ति मिलती है। एक ही गाथा किसी व्याख्या ग्रंथ में नियुक्ति गाथा के क्रमांक में है तो किसी में भाष्य गाथा के क्रम में। किसी ने उसे अन्यकर्तृकी के रूप में दर्शाया है तो किसी ने उसे प्रक्षिप्त गाथा के रूप में उल्लिखित किया है। प्रस्तुत ग्रंथ में गाथा-संख्या में इतना अंतर कैसे आया तथा व्याख्याकारों में इतना मतभेद कैसे रहा, यह ऐतिहासिक दृष्टि से शोध का विषय है। हमने पाठ-संपादन में केवल शब्दों पर ही ध्यान नहीं दिया परन्तु हर गाथा के पौर्वापर्य का भी गहराई से अनुचिंतन किया है। कौन गाथा बाद में प्रक्षिप्त हुई अथवा भाष्य की कौन गाथा नियुक्ति के साथ जुड़ गयी, इस बारे में पाठ-संपादन में समालोचनात्मक पाद-टिप्पण प्रस्तुत कर दिए हैं। गाथा-निर्णय में मुख्यत: विशेषावश्यक भाष्य, उनकी टीकाएं एवं चूर्णि की सहायता महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है। इन व्याख्या ग्रंथों के अभाव में गाथाओं पर जो समालोचनात्मक टिप्पण लिखे गए, वे संभव नहीं हो पाते। भाषा-शैली एवं विषय की क्रमबद्धता भी प्रक्षिप्त अंशों को अलग करने में सहायक बनी है। अनेक स्थलों पर स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि इतना अंश अनधिकृत रूप से बाद में प्रक्षिप्त हो गया है, इसका मूल ग्रंथ के साथ कोई संबंध नहीं है। गाथाओं के क्रम में उन गाथाओं को न जोड़ने पर भी चालू विषयवस्तु के क्रम में कोई अंतर नहीं आता। पादटिप्पण में अनेक स्थलों पर हमने 'दोनों भाष्यों' इस शब्द का प्रयोग किया है। इसका तात्पर्य कोट्याचार्य कृत टीका वाला भाष्य एवं स्वोपज्ञ टीका वाले भाष्य से है। प्रकाशित मलयगिरि टीका में अनेक नियुक्ति गाथाओं के आगे भाष्य गाथा के क्रमांक लगे हैं तथा अनेक भाष्य गाथाएं नियुक्ति के क्रमांक में जुड़ गयी हैं। संभवतः प्रकाशन की त्रुटि से ऐसा हुआ है। हमने पादटिप्पण में इसका उल्लेख कर दिया है। आवश्यक नियुक्ति की गाथा संख्या का निर्धारण आज तक की प्रचलित अवधारणाओं से हटकर हुआ है। विस्तृत चर्चा हम पाठ-संपादन के दौरान पादटिप्पणों में कर चुके हैं फिर भी अनुसंधाताओं की सुविधा के लिए एक ही स्थान पर संक्षेप में उन बिन्दुओं को प्रकट कर रहे हैं१. कहीं-कहीं विशेषावश्यक भाष्य की गाथाएं भी नियुक्ति के क्रमांक में जुड़ गयी हैं। जैसे २२/१ और २२/२–ये दोनों गाथाएं भाष्य की थीं लेकिन कालान्तर में नियुक्तिगाथाओं के साथ जुड़ गयीं। इनको मूल गाथा के क्रमांक से न जोड़ने पर भी चालू विषयक्रम में कोई अन्तर नहीं आता। इसी प्रकार गा. १००/१ भी भाष्यकार द्वारा द्वारगाथा के रूप में लिखी गयी थी लेकिन महत्त्वपूर्ण होने के कारण कालान्तर में टीकाओं में नियुक्तिगाथा के क्रमांक में जुड़ गयी। चूर्णिकार ने इस गाथा का संकेत एवं व्याख्या नहीं की है। गा. ३६९/१ स्वो. १९७७, को. १९९५ में भाष्य गाथा के क्रम में है तथा बाद में को. २०१३ क्रमांक में यही गाथा निगा के क्रमांक में है। यह गाथा स्पष्टतया भाष्यकार की प्रतीत होती है। इसी प्रकार देखें-गाथा १३१/१,२। २. कहीं-कहीं चूर्णि में गाथा का संकेत एवं व्याख्या न होने पर भी यदि सभी व्याख्या ग्रंथों में गाथा नियुक्ति गाथा के क्रम में मिली है तो उसको निगा के क्रमांक में जोड़ा है, जैसे-आवनि गा. ३८ । लेकिन जहां कहीं गाथा संपूर्ति रूप या व्याख्यात्मक लगी, वहां सभी व्याख्या ग्रंथों में मिलने पर भी चूर्णि में संकेत न होने से गाथा को नियुक्तिगाथा के क्रमांक में नहीं जोड़ा है, जैसे-६५/१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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