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________________ २६२ आवश्यक नियुक्ति ६४७/६. अग्रायणीय पूर्व में यह पाठ है-जहां एक द्वीपायन का हनन होता है या एक द्वीपायन भोजन करता है वहां सौ द्वीपायनों का हनन होता है तथा सौ द्वीपायन भोजन करते हैं। (यह निशीथ है, गुप्तार्थ है, परम्परा के अभाव में इसकी व्याख्या असंभव है।) ६४७/७. इस प्रकार बद्ध-अबद्ध आदेश पांच सौ हैं। उसमें एक आदेश है-अत्यंत स्थावराअनादिवनस्पतिकाय से निकलकर मरुदेवा सिद्ध हुई। ६४७/८. नोश्रुतकरण दो प्रकार का है-गुणकरण तथा योजनाकरण। गुणकरण के दो प्रकार हैं-तप:करण तथा संयमकरण। ६४७/९. योजनाकरण मन, वचन और काया से संबंधित है इसलिये वह तीन प्रकार का है। सत्य आदि को मन, वचन और काया से स्वस्वस्थान में जोड़ने पर चार-चार और सात भेद होते हैं। ६४७/१०. यहां भाव श्रुतशब्दकरण में श्रुतसामायिक के अधिकार का अवतरण करना चाहिए। नोश्रुतकरण में गुणकरण और योजनाकरण यथासंभव होते हैं। ६४८. सामायिक के सात द्वार हैं-१. कृत-अकृत २. किसने की ३. किन द्रव्यों में की ४. कब अथवा कारक ५. किस नय से ६. कितने करण से ७. कैसे? १. जो पाठ अंग-उपांग आगम में उपलब्ध नहीं हैं, वे अबद्धश्रुत कहलाते हैं। उन्हें 'आदेश' कहा जाता है। अबद्ध आदेश अर्हत्-प्रवचन में पांच सौ की संख्या में हैं। जैसे१. अर्हत् ऋषभ की माता मरुदेवी अनन्त वनस्पति से उद्वृत्त होकर सिद्ध हुई। २. स्वयंभूरमण समुद्र के मत्स्यों और पद्मपत्रों में वलय संस्थान को छोड़कर शेष सब संस्थान होते हैं। ३. श्री विष्णु ने सातिरेक (कुछ अधिक) एक लाख योजन की विकुर्वणा की। ४. कुणाला नगरी में कुरुट और उत्कुरुट-ये दो उपाध्याय रहते थे। उन दोनों की वसति नगरी के जल-निर्गमन मार्ग पर थी। वर्षावास का समय था। उन्होंने वर्षा न होने के लिए देवता की अनुकम्पा प्राप्त की। नागरिकों ने यह जानकर उनको वहां से निकाल दिया। तब रुष्ट होकर कुरुट ने कहा-देव! कुणाला में बरसो। उत्कुरुट ने कहा-पन्द्रह दिन तक निरंतर बरसो। कुरुट ने पुन: कहा-मुसलाधार वर्षा करो। उत्कुरुट ने इतना और जोड़ दिया-दिन-रात एक समान बरसो। ऐसा कहकर दोनों ने वहां से प्रस्थान कर दिया। तीसरे वर्ष साकेत नगरी में वे दोनों मरकर सातवीं नरक में बाईस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिक बने। उधर निरंतर पन्द्रह दिन-रात तक मुसलाधार वर्षा के कारण कुणाला नगरी जल से आप्लावित होकर विनष्ट हो गई। कुणाला के विनाश के बारह वर्ष पश्चात् तेरहवें वर्ष में भगवान् को कैवल्य उत्पन्न हुआ। इस प्रकार के पांच सौ आदेश सूत्र में निबद्ध नहीं हैं। ये लोकोत्तर आदेश हैं । बत्तीस अड्डिका (मल्लों की क्रियाविशेष), बत्तीस प्रत्यड्किा , सोलह करण तथा लोकप्रवाह में वर्णित पांच स्थान-आलीढ, प्रत्यालीढ, वैशाख, मण्डल और समपाद तथा छठा स्थान शयनकरण-ये कथन लौकिक शास्त्रों में निबद्ध नहीं हैं। ये लौकिक आदेश हैं (आवहाटी. १ पृ. ३१०, ३११)। २. जैसे-सत्यमनोयोजनाकरण, असत्यमनोयोजनाकरण, सत्यमृषामनोयोजनाकरण, असत्यामृषामनोयोजनाकरण । इसी प्रकार वाग्योजनाकरण के चार भेद हैं और काययोजनाकरण के ये सात भेद हैं-औदारिककाययोजनाकरण, औदारिकमिश्रकाययोजनाकरण, वैक्रियकाययोजनाकरण, वैक्रियमिश्रकाययोजनाकरण, आहारककाययोजनाकरण, आहारकमिश्रकाययोजनाकरण तथा कार्मणकाययोजनाकरण। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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